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विषय प्रवेश
जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र ३०५ में पृथ्वीकाय के मुख्य दो भेद उपलब्ध होते हैं:
(१) सूक्ष्म और (२) बादर। इनमें प्रत्येक के दो-दो भेद हैं - सूक्ष्म पर्याप्तक और सूक्ष्म अपर्याप्तक; बादर पर्याप्तक और बादर अपर्याप्तक - ऐसे कुल चार भेद होते हैं। इनमें सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। बादर पृथ्वीकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त होकर रहे हुए हैं।०५ अप्कायिक - जो जीव अपकायिक स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं, उनका शरीर जलरूप होता हैं। सँई की नोक की तरह इनका शरीर होता है। इनके भी चार भेद निम्न हैं - सूक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक और बादर
अपर्याप्तक। (३) वनस्पतिकायः- जो जीव वनस्पति स्थावर नामकर्म के उदय से
वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं वे वनस्पतिकायिक स्थावर एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। वनस्पतिकायिक के सूक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक और बादर अपर्याप्तक - ऐसे चार भेद होते हैं। बादर वनस्पतिकाय के जीव मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं - प्रत्येक वनस्पतिकाय और साधारण वनस्पतिकाय।२०० उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार भावविजयजी के अनुसार एक शरीर में एक ही जीव हो, वह प्रत्येक वनस्पतिकाय कहलाता है। एक शरीर में अनेक जीव समान
रूप से रहे हुए हों, वे साधारण वनस्पतिकाय कहलाते हैं।२०८ (४) अग्निकायिकजीवः- अग्निकायिक जीवों के शरीर तेजस् (अग्नि) से युक्त होते हैं। इनके चार भेद हैं - १. सूक्ष्म पर्याप्तक
२. सूक्ष्म अपर्याप्तक ३. बादर पर्याप्तक; और ४. बादर अपर्याप्तक। बादर जीव अनेक प्रकार के होते हैं। जीवविचार में भी अग्निकायिक जीवों को स्थावर स्वीकार किया है। इनके निम्न
२०५ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/७०। ३०६ वही ३६/७१-७७ । २०० उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६२-६३ । ३०८ उत्तराध्ययनसूत्र, गणिवर्य श्री भावविजय जी की टीका, पत्र ३३८६ ।
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