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________________ ७० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा उत्पाद और व्यय (उत्पत्ति और विनाश) दोनों में द्रव्य की अन्वय रूप रहने वाली सत्ता को मानता है - जैसे कुशूल, घट, शिवक, दीपक आदि पर्यायों में मिट्टी द्रव्य अन्वयरूप से रहता है। आत्मा को एकान्त क्षणिक मानने में निम्न दोष आते हैं:२६५ १. जिसमें अर्थ क्रिया होती है, वह वस्तु कहलाती है।२६६ आत्मा को क्षणिक मानने से वह अवस्तु सिद्ध होगी। क्योंकि क्षणिक आत्मा में क्रम, अक्रम या किसी अन्य प्रकार से अर्थ क्रिया असम्भव है। पुनः क्षणिक पदार्थ में देशकृत तथा कालकृत क्रम भी असम्भव सिद्ध होगा। अतः आत्मा को क्षणिक मानना भी उचित नहीं है। २. अष्ठसहस्री की कारिका में कहा गया है२६७ कि यदि आत्मा को क्षणिक मानेंगे तो किये गए कार्यों का विनाश हो जावेगा। जिस क्षण में कार्य किया था वह क्षण नष्ट हो जावेगा। फिर फल की उपलब्धि भी नहीं होगी। आत्मा को क्षणिक मानने पर 'कृतप्रणाश' एवं 'अकृत' कर्मभोग नामक दोष लगता है। ऐसा स्याद्वादमंजरी में बताया गया है। ३. अष्टसहस्री में बताया है कि क्षणिक आत्मवाद में हिंस्य, हिंसक और हिंसा का फल नहीं बनेगा तथा जिसने बन्ध किया वह मुक्त नहीं होगा अर्थात् बन्धेगा कोई और छुटेगा दूसरा - आत्मा को क्षणिक मानने पर मोक्ष तथा पुनर्जन्म नहीं हो सकेगा। भट्ट अकलंकदेव ने भी कहा है कि आत्मा को क्षणिक स्वीकार करने पर ज्ञान, वैराग्य आदि परिणमनों का आधारभूत पदार्थ नहीं होने के कारण मोक्ष नहीं हो सकेगा। क्षणिक आत्मवाद के अनुसार पुण्य-पाप, शुभाशुभ कर्म, बन्ध, मोक्ष आदि कुछ भी सम्भव नहीं हो सकता। फिर क्षणिक अनित्य आत्मा में भावनाओं का चिन्तन कोई करेगा और मोक्ष किसी दूसरे का होगा। पुनः परलोक, पुनर्जन्म आदि क्षणिकवाद के अनुसार असम्भव हैं। क्योंकि यदि कोई नित्य तत्त्व ही नहीं है -न्यायविनिश्चय (१/१५) । २६५ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१५२ । २६६ 'अर्थक्रिया सामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुतः' । २६७ अष्ठसहस्री कारिका ८ । २६८ (क) स्याद्वामंजरी १८; (ख) षड्दर्शनसमुच्च्य कारिका । -श्रावकाचार (अमितगति ४/८७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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