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________________ विषय प्रवेश ६५ है। फिर भी इनमें अर्थपर्याय होती है। व्यंजनपर्याय का अभाव होता है। व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से तो वे अपरिणामी कहलाते हैं। परिणमन की अपेक्षा से जीवद्रव्य अनित्य है, क्योंकि परिणमनरूप पर्याय या अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य नित्य होते हुए भी परिणमन स्वभाववाला होने से स्वयं ही कार्यरूप में परिणमन करता है अर्थात् उसकी वर्तमान पर्याय भविष्यकालीन पर्याय में बदल जाती हैं। इसलिए उसे अनित्य कहा जाता है। किन्तु पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों ही पर्यायों में रहनेवाला जीवात्मा तो वही होता है। स्व-स्वरूप की अपेक्षा से आत्मद्रव्य नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य अथवा परिणामी है।२४२ हरिवंशपुराण में भी कहा गया है - "द्रव्यपर्याय रूपत्वान्नित्यानित्योभयात्मका”२४३ ___अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य होती है। यह जीव शिशुपर्याय (अवस्था) से युवापर्याय और युवापर्याय से जरावस्था को प्राप्त करता है अथवा देवगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति या नरकगति में जाता है। यही उसका परिणमन कहलाता है। यदि हम बन्धन तथा मोक्ष को मानते हैं तो हमें आत्मा को परिणामी मानना होगा। जीव अस्तित्व की अपेक्षा अनादिनिधन है, तो भी नये-नये पर्यायों में परिणत होता रहता है। ऐसा स्वामी कार्तिकेय का मन्तव्य है।४४ वसुनन्दी ने भी स्वीकर किया है कि जीव परिणामी है क्योंकि वह चारों गतियों में गमन करता है।२४५ आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही स्वीकार किया है।४६ २. आत्मा अपरिणामी कैसे ? जैनदर्शन के अनुसार आत्मद्रव्य को परिणामी नित्य माना गया है। जबकि अन्य भारतीय दर्शनों तथा सांख्ययोग, प्रभाकर एवं २४२ पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका २७ । २४३ हरिवंशपुराण ३/१०८ । २४४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा १६०/२३१-३२ । २४५ श्रावकाचार (वसुनन्दी) २६ । २४६ भावपाहुड ११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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