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विषय प्रवेश
आत्माभिमुखता है। इसके द्वारा ही आत्मा स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त होती है । मुक्तात्मा या परमात्मा तो सदैव निज स्वभाव में स्थिर रहते हैं । स्वाभाविक अवस्था ही जीवन का परम साध्य है ।
स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाओं को भगवद्गीता में स्वधर्म और परधर्म के रूप में परिभाषित किया है । २३१ आनन्दघनजी ने स्वभावदशा को समता और विभावदशा को ममता कहा है । शुद्धात्मस्वरूप की अनवरत अनुभूति को स्व-स्वभावदशा एवं पौद्गलिक पर - भावों में भटकने वाली चेतना को विभावदशा कहा है । २३२ उन्होंने आत्मा की विभावदशा का अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया है
“बालुडी अबला जोर किसौ करे, पीउड़ो पर घर जाई, पूरब दिसि तजि पच्छिम रातड़ौ, रवि अस्तगत थई ।”
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जिस प्रकार सूरज पूर्व दिशा को त्याग पश्चिम दिशा में अनुरक्त होकर अस्त हो जाता है; उसी प्रकार जब आत्मा समता रूपी स्वघर का त्यागकर ममतारूपी परघर में अनुरक्त हो जाती है; तब उसकी शुद्ध स्वभाविकदशा पर मिथ्यात्वरूपी तम छा जाता है । समयसार टीका में भी आत्मा की स्वभावपर्याय और विभावपर्याय का उल्लेख हुआ है । वस्तुतः पर्याय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है । यह अवस्था या दशा को सूचित करता है । स्वाश्रित या स्वभावदशा मुक्ति की द्योतक है । विभावदशा परपुद्गल के निमित्त से होने वाली पर्याय अर्थात् पराश्रितदशा है । यह बन्धन की परिचायक है । डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध प्रबन्ध ग्रन्थ में लिखा है कि “नैतिक जीवन का अर्थ विभावपर्याय से स्वभावपर्याय में आना है।” स्वभावदशा आत्मा की सात्त्विकवृत्ति और विभावदशा आत्मा की तामसिक ( तमोगुणवाली) वृत्ति है T स्वभाव और विभाव ये दोनों अवस्थाएँ एक दूसरे की विरोधी होते हुए भी
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२३१
‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। ३५ ।।
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- भागवद्गीता अध्याय ३ ।
२३२ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २२२ ।
- डॉ. सागरमल जैन ।
२३३ आनन्दघन ग्रन्थावली पद ४१ । २३४ समयसार टीका २, ३ ।
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