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विषय प्रवेश
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ज्ञान को यदि जीव से सर्वथा अभिन्न माना जायेगा तो सुख-दुःखादि गुण और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं रहेगा। अतः ज्ञान आत्मा से कथंचित् अभिन्न है। षड्दर्शनसमुच्चय की टीका०६ आदि में भी ऐसा ही माना गया है। वस्तुतः जैनदर्शन अनेकान्तवादी है। अतः उसमें गुण-गुणी में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद माना गया है।
४. आत्मा अनन्त-चतुष्टय से युक्त है
जैन दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य (आनन्द) और अनन्तवीर्य (अनन्तशक्ति) रूप अनन्त-चतुष्टय को स्वीकार किया है।१० उनके अनुसार विश्व की प्रत्येक आत्मा स्वरूपतः अनन्त-चतुष्टय से सम्पन्न है। आत्मा में ये गुण स्वभावतः निहित हैं। किन्तु कर्मों के द्वारा आच्छादित होने के कारण उसकी ज्ञानादि रूप ये अनन्त शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। उस आवरण को समाप्त कर उन क्षमताओं को योग्यता में परिणत करना ही साधना का एक मात्र लक्ष्य है। आत्मा का यह अनन्त-चतुष्टय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय - इन चार घाती कर्मों के आवरण के कारण ही कुण्ठित है।
परमात्मदशा में प्रवेश करने के पूर्व इन चारों घातीकर्मों के आचरण को हटाना अत्यन्त आवश्यक होता है। तभी परमात्मदशा में ये अनन्त शक्तियाँ अनावरित होकर हमें पूर्ण रूप से उपलब्ध हो सकती हैं। अनन्त-चतुष्टय रूप जो शक्तियाँ आत्मा में तिरोहित हैं, उन्हीं शक्तियों को प्रकट करने के लिए अन्तरात्मा पुरुषार्थ करती है और उसका यह पुरुषार्थ ही साधना है। __ इन अनन्त शक्तियों का आत्मा में प्रकटीकरण करने के लिए आत्मा के साथ रहे हुए कषायरूपी कल्मष को नष्ट करना आवश्यक है। कषाय के कारण ही कार्मण वर्गणाएँ आत्मा की इन शक्तियों को आच्छादित करती हैं। कषायों के नष्ट होने से ही
२०६ षड्दर्शनसमुच्चय टीका कारिका ४६ । ° प्रमाणनयतत्त्वलोक ७/५६ ।
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