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________________ -६०] दशमः स्तबकः शिखरं निरभिलाषमध्यासीने, भरतपतिरा प्राग्भारमालोकान्तमतिदीर्घ मन्दरभूधरं, युवराजश्च स्वर्गादागत्य भवरोगनिरसनपूर्वकं सुरलोकप्राप्तये कृतोद्यमं महौषधिद्रुमं, गृहपतिश्च निरन्तरं नरनिकरायाभीष्टार्थं दत्त्वा नाकाक्रमणाय सत्त्वरं कल्पतरूं, सचिवाग्रेसरः पुनजिघृक्षुजनेभ्यो नानारत्नानि प्रदाय प्रकटिताग्रगमनाटोपं रत्नद्वोपं, सेनापतिरपि कैलासोल्लङ्घनसंनद्धं विघटितवज्रपञ्जरं कुञ्जररिपुं, सुभद्रादेवी च यशस्वतीसुनन्दाभ्यां सह शोचन्ती पुरन्दरसुन्दरी स्वप्ने ५ निशामयामासुः। $ ५९ ) निधिपतिमुखैर्दष्टस्वप्नान्निशम्य पुरोहितः पुरुजिनपतेर्हत्वा कर्माणि सर्वजगत्पतेः । बहुमुनिजनैः साकं लोकान्तभागसुगामितां वदति निखिलस्वप्नाल्येषेति धीरमवोचत ॥४२॥ ६६० ) तदानीमेवागतादानदनाम्नः शासनधरात् मुकुलीकृतसरोरुहतया सभासरस्या सम्पास्यमान भगवतो दिव्यध्वनिदिवाकरास्तमयं श्रुत्वा गत्वा च सत्त्वरं भगवत्संनिधिं चक्रधरश्चतुर्दशदिनानि महापूजया भगवन्तमसेवत । बभूव । शिखरिणीछन्दः ॥४१॥ ६५८) तदानीमिति-सुगमम् । ६ ५९ ) निधिपतीति-निधिपतिमुखैश्चक्रवर्तिप्रभृतिभिः दृष्टाश्च ते स्वप्नाश्चेति दृष्टस्वप्नास्तान् निशम्य श्रुत्वा पुरोहितः पुरोधाः इति धीरं यथा १५ स्यात्तथा अवोचत जगाद । एषा निखिलस्वप्नाली सर्वस्वप्नसंततिः सर्वजगत्पतेः निखिलसंसारस्वामिनः पुरुजिनपतेः वृषभजिन राजस्य कर्माणि ज्ञानावरणादीनि हत्वा क्षपयित्वा बहुमुनिजनैरनेकयतिभिः साकं साधं लोकान्तभागं सुगच्छतीति लोकान्तभागसुगामी तस्य भावस्तां मोक्षप्राप्ति वदति कथयति सूचयतीत्यर्थः । कर पौषमासकी पौर्णमासीके दिन कैलास पर्वतपर सुशोभित श्री सिद्ध शिखरपर बिना किसी इच्छाके अधिरूढ हो गये तब भरतराजने ईषत्प्रागभार पृथिवी तथा लोकके अन्त तक २० अत्यन्त लम्बे मन्दर गिरिको, युवराजने स्वर्गसे आकर तथा संसार रूपी रोगको नष्ट कर सुर लोककी प्राप्तिके लिए उद्यम करनेवाले महौषधिरूपको, गृहपतिने निरन्तर मनुष्य समूहके लिए अभीष्टपदार्थ देकर स्वर्गमें जानेके लिए उतावली करनेवाले कल्पवृक्षको, प्रधानमन्त्रीने ग्रहण करनेके इच्छुक मनुष्योंके लिए नाना रत्न देकर आगे जानेके लिए गमनके विस्तारको प्रकट करनेवाले रत्नद्वीपको, सेनापतिने कैलास पर्वतके लाँघनेके लिए तैयार तथा वज्रमय २५ पंजरको तोड़नेवाले सिंहको और सुभद्रादेवीने यशस्वती तथा सुनन्दाके साथ शोक करती हुई इन्द्राणीको स्वप्नमें देखा। ६५९) निधिपतीति-चक्रवर्ती आदिके द्वारा देखे गये दुष्ट स्वप्नोंको सुनकर पुरोहितने धीरतापूर्वक कहा कि यह समस्त स्वप्नोंकी पंक्ति, समस्त जगत्के स्वामी पुरु जिनेन्द्र कर्मों को नष्ट कर अनेक मुनियोंके साथ लोकके अन्त भागको अच्छी तरह प्राप्त होंगे, यह कह रही है ॥४२॥ ६६०) तदानीमेवेति-उसी समय आये हुए ३० आनद नामके सेवकसे भरतेश्वरने सुना कि जोड़े हुए हाथ रूपी कमलोंसे युक्त सभारूपी सरसी जिनकी उपासना कर रही थी ऐसे भगवान्की दिव्य ध्वनिरूपी सूर्यका अस्त हो गया है अर्थात् भगवान्की दिव्यध्वनि बन्द हो गयी है। उक्त समाचारके सुनते ही चक्रवर्ती भरत शीघ्र ही भगवान्के पास गया और चौदह दिन तक महापूजाके द्वारा उनकी सेवा ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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