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________________ १० पुरुदेव चम्पूप्रबन्धे [ १०।१४३ संबन्धान्तरस्वरूपान्दशाधिकारान् श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तमन्त्रक्रियादेवतालिङ्गकामान्न विषयशुद्धिदशकं पक्षशुद्धिचर्याशुद्धिसाधनशुद्धिरूपशुद्धित्रयं च सविस्तरमुपदिश्यैवमुवाच । $ ४३ ) पूर्वोक्तकर्मनिर्माणकर्मठा ये समाहृताः । ते वर्णोत्तमभूदेवदेवब्राह्मणशब्दितेः ॥३०॥ $ ४४ ) निस्तारको ग्रामपतिर्मानाह लोकपूजितः । इत्यन्वथैर्नामभिश्च जोघुष्यन्ते महोतले ||३१|| $ ४५ ) इति भरतनरेन्द्रप्राप्त संस्कारयोगा ३६४ व्रतनियमगरिष्ठाः श्रीश्रुताम्भोधिनिष्ठाः । जिनपतिचरणाम्भोजातलोलम्बलीला गति बहुमतास्ते ब्राह्मणाः ख्यातिमीयुः ||३२|| ९ ४६ ) अथ कदाचन चक्रधरः कांश्चिदद्भुतदर्शनान्स्वप्नानवलोक्य किंचिदुद्विग्नः स्वान्तेन कामपि चिन्तां गाहमानः कथंचित्फलानि जानानोऽपि दृढतरं तेषां निश्चयाय भगवदास्थानं प्रति प्रस्थितः, सेनानुयातैर्मुकुटबद्धेः परिष्कृतपार्श्वभागो दूरादेव भगवदास्थानभूमिं दृष्ट्वा नत्वा च गन्धकुटीमध्ये विलसन्तं देवदानवादिसेवितं भगवदर्हन्तमवन्दत । १५ ४२ ) अथेति - हिन्दोटीका द्रष्टव्या । $ ४३ ) पूर्वोक्तेति — ये पूर्वोक्तानां प्रागुदितानां कर्मणां निर्माण करणे कर्मठादक्षाः सन्ति वर्णोत्तम भूदेव देवब्राह्मणेतिशब्दितैः समाहृताः समुच्चरिताः ||३०|| § ४४ ) निस्तारक इति - सुगमम् ||३१|| ४५ ) इतीति — इतोत्थं भरतनरेन्द्रान्निधिपतेः प्राप्तः संस्काराणां योगो येषां ते व्रतनियमैर्गरिष्ठाः श्रेष्ठतराः, श्रीश्रुताम्भोधौ निष्ठा येषां ते, जिनपतिचरणाम्भोजा तयोः जिन राजपादाब्जयोर्लोलम्बलीला भ्रमरलीला येषां तथाभूताः ते ब्राह्मणा भूदेवा जगति भुवने बहुमताः २० प्राप्त बहुसन्मानाः सन्तः ख्याति प्रसिद्धिम् ईयुः प्रापुः । मालिनी छन्दः ।। ३२ ।। ६४६ ) अथेति - सुगमम् । प्रजासम्बन्धान्तरस्वरूप दश अधिकारोंका श्रुति, स्मृति, पुरावृत्त, मन्त्र, क्रिया, देवता, लिंग, काम, अन्न और विषय इन दश प्रकार की शुद्धियोंका और पक्षशुद्धि, चर्याशुद्धि तथा साधनशुद्धि इन तीन शुद्धियोंका विस्तारसे उपदेश देकर इस प्रकार कहा । १४३ ) पूर्वोक्तेति — जो पहले कही हुई क्रियाओंके करनेमें कर्मठ हैं वे वर्णोत्तम, भूदेव तथा देव२५ ब्राह्मण इन शब्दों द्वारा कहे गये हैं ||३०|| १४४ ) निस्तारकेति - - तथा वे पृथिवीतलपर निस्तारक, ग्रामपति, मानाई और लोकपूजित इन सार्थक नामोंसे कहे जाते हैं ||३१|| १४५ ) इतीति- इस प्रकार जिन्हें राजा भरतसे संस्कारोंका योग प्राप्त हुआ था, जो व्रत और नियमसे श्रेष्ठ थे, शास्त्ररूपी समुद्र में स्थित थे तथा जिनेन्द्रभगवान् के चरणकमलोंमें भ्रमर के समान सुशोभित थे वे जगत् में बहुत सम्मानको प्राप्त होकर ब्राह्मण इस प्रकारकी ३० ख्यातिको प्राप्त हुए ||३२|| १४६ ) अथेति -- तदनन्तर किसी समय चक्रवर्ती कुछ अद्भुत घटनाओंको दिखलानेवाले स्वप्न देखकर कुछ उद्विग्न होता हुआ मनसे कुछ विचार करने लगा । यद्यपि वह किसी तरह उन स्वप्नोंके फलको जानता था तो भी उनका दृढ़ निश्चय करने के लिए भगवान् के समवसरणकी ओर चला, अपनी-अपनी सेनाओंसे अनुगत मुकुटबद्धराजाओंसे उसका समीपवर्ती प्रदेश घिरा हुआ था। दूरसे ही भगवान् के सम३५ वसरणी भूमि देखकर उसने नमस्कार किया और गन्धकुटीके मध्य में सुशोभित तथा देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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