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विषयानुक्रमणिका
उपदेश दिया । पश्चात् भरत आदि पुत्रोंके लिए भी अनेक विद्याएँ पड़ायीं । सुशिक्षित पुत्र-पुत्रियों के साथ उनका काल सुखसे बीतने
लगा ।
इस बीच कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेसे प्रजा दुःखी होकर शरण पानेके लिए राजा नाभिराजकी सम्मति से भगवान् के पास पहुँची । प्रजाने अपना दुःख उनसे निवेदित किया । भगवान्ने सान्त्वना देकर विदेहक्षेत्र के अनुसार यहाँ भी कर्मभूमि की स्थापना की । नगर, ग्राम आदिकी रचना कर प्रमुख राजवंश स्थापित किये । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णोंका विभाग कर सबका कार्य निर्धारित किया । वह युग 'कृतयुग' के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
इन्द्रने भगवान् वृषभदेवका राज्याभिषेक किया । बन्दीजनोंने विरदगान किया । इन्द्र आनन्द नाटककर स्वर्गको वापस गया ।
भगवान् की राज्य व्यवस्थाका वर्णन ।
किसी समय भगवान् राजसभामें नीलांजना नामक सुरनर्तकी का नृत्य देख रहे थे । अकस्मात् ही सुरनर्तकी की आयु पूर्ण हो गयी । यद्यपि इन्द्रने उसके स्थानपर उसीके समान रूपवाली दूसरी नर्तकी खड़ी कर दी । परन्तु भगवान् उसके अन्तरको समझ गये । भगवान्का चित्त संसारसे विरक्त हो गया । वे मनमें समस्त पदार्थों की अनित्यताका विचार करते हुए संसारसे विरक्त हो गये । उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर भगवान्की विरक्तिका समर्थन किया । लोकान्तिक देवोंके वापस जाते ही सौधर्मेन्द्रने दीक्षा कल्याणककी तैयारी शुरू कर दी
भगवान्ने भरतका राज्याभिषेक किया, अन्य पुत्रोंके लिए भी यथायोग्य देशोंका राज्य दिया । पश्चात् नाभिराज आदिसे पूछकर भगवान् शिबिकापर सवार हुए। असंख्य नर-नारियों और देवोंके साथ वे दीक्षावनमें जाकर स्फटिकमणिकी शिलापर आरूढ़ हुए । उन्होंने पूर्वाभिमुख स्थित होकर सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार किया । वस्त्राभूषण उतार दिये और पंचमुष्टियों से केशलोंच किया । इन्द्र ने उन केशों को रत्नमय पिटारेमें रखा । भगवान्का यह दीक्षा कल्याणक चैत्रकृष्ण नवमी के अपराह्नकालमें हुआ था । इन्द्रने उनके केशोंको क्षीर समुद्र में क्षेप दिया । उनके साथ कच्छ महाकच्छ आदि चार हजार राजाओंने भी दीक्षा ली थी । सूर्यास्त होते-होते भरत उत्सवसे वापस आ गये । देव लोग अपने-अपने निवास स्थानपर चले गये ।
अष्टम स्तबक
कायोत्सर्ग मुद्रामें लीन होकर भगवान् दुश्चर तप करने लगे । उन्होंने छह माह का योग धारण किया था। वे पर्वत के समान अचल थे । कुछ
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