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________________ २९८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ८६४२प्रदानाय संसल्लक्ष्म्याः समुदस्तभुजदण्डचतुष्टयसंभावनासंपादकेन जातरूपधरेणाप्यम्बरस्पर्शनविलोलध्वजविराजितेन मानस्तम्भचतुष्टयेन जुष्टं चकासामास । ६४२ ) विमलसलिलान्यस्य प्रान्ते सरांसि निरेजिरे जिनदिनमणेर्भासा यत्रत्यकोकपरम्परा। निशि न विरहं भेजे भेजे च वारिजमण्डलं मधुरसपरीवाहैमत्तद्विरेफमनोज्ञताम् ॥२३॥ $ ४३ ) त्रिविधगतिषु भ्रान्त्वा खिन्ना सुराधिकतोषिणी बहुतरपरीतापि सा पङ्कजातसदोदयैः । प्रभोः अनन्तचतुष्टयेनेव अनन्तज्ञानदर्शनसुखवार्यरूपेणेव, पुरुषार्थानां धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुष्टयं तस्य १० प्रदानाय वितरणाय संसल्लक्षम्याः समवसरणश्रियाः समुदस्ताः समुन्नमिता ये भुजदण्डा बाहुदण्डास्तेषां चतुष्टयस्य संभावनायाः संपादकेन, जातरूपधरेणापि दिगम्बरमुद्राधरेणापि पक्षे सुवर्णघरेणापि अम्बरस्पर्शने वस्त्रस्पर्शने पक्षे गगनस्पर्शने विलोलाः सतृष्णाः पक्षे चपला ये ध्वजास्तविराजितेन शोभितेन मानस्तम्भचतुष्टयेन जुष्टं सहितं चकासामास शुशुभे । श्लेषोत्प्रेक्षाविरोधाभासाः । $ ४२ ) विमलेति-अस्य मानस्तम्भचतुष्टयस्य प्रान्ते समोपे विमलसलिलानि निमलनीराणि तानि सरांसि १५ कासाराः विरेजिरे शुशुभिरे यत्रत्यकोकपरम्परा यत्र भवा यत्रत्या सा चासो कोकपरम्परा च चक्रवाकसंतति श्चेति तथाभूता जिनदिनमणेजिनेन्द्रदिवाकरस्य भासा कान्त्या निशि रजन्यां विरहं चक्रवाकीभिः सह वियोगं न भेजे प्राप वारिजमण्डलं च कमलसमूहश्च मधुरसस्य मकरन्दस्य परीवाहैः प्रवाहैः मत्तद्विरेफैः मत्तभ्रमरैः मनोज्ञतां सुन्दरतां भेजे प्राप । रूपकालंकारः। हरिणीछन्दः ॥२४॥ ६४३) त्रिविधेति-त्रिविधगतिषु त्रिपथेषु पक्षे नारकतिर्यमनुष्यपर्यायेषु भ्रान्त्वा भ्रमणं कृत्वा खिन्ना प्राप्तखेदा सुराधिकतोषिणी सुरया मदिरया अधिकं यथा स्यात्तुष्यतीत्येवं शीला तथा पक्षे सुरान् देवान् अधिकं तोषयतीत्येवं शीला, पङ्कजातसदोदयैः पङ्कानां पापानां जातस्य समूहस्य ये सदा शश्वत् उदया विपाकास्तैः बहुतरः प्रभूतः परीताप: संतापो यस्याः सा पक्षे पङ्कजातानां कमलानां सदा सर्वदा उदया विकासास्तैः बहुतरं प्रचुरं यथा स्यात्तथा धारण करनेवाला था)। वह समवसरण चारों दिशाओंमें जिन चार मान स्तम्भोंसे सहित था वे सुवर्णमय खम्भोंके अग्रभागमें लटकते हुए मणिमय मकराकर तोरणोंसे रमणीय तथा २५ ज्योतिष्क देवरूपी द्वारपालोंसे सुरक्षित सुवर्णमय गोपुरोंके भीतर महावीथियोंके मध्यमें सुशोभित थे । तथा ऐसे जान पड़ते थे मानो शरीरको प्राप्त हुए भगवान्के अनन्तचतुष्टय ही हों, अथवा चार पुरुषार्थोंको देनेके लिए समवसरणकी लक्ष्मीके ऊपर उठे हुए चार भुजदण्ड ही हों। वे मानस्तम्भ जातरूपधर-दिगम्बर वेषको धारण करनेवाले होकर भी अम्बर स्पर्शन विलोल ध्वजविराजित-वस्त्रके स्पर्श करने में सतृष्ण ध्वजाओंसे सुशोभित ३० थे (परिहार पक्ष में सुवर्णके धारक होकर भी आकाशका स्पर्श करनेवाली चंचल ध्वजाओंसे सुशोभित थे)। $ ४२) विमलेति-उन मानस्तम्भोंके समीप निर्मल जलसे भरे हुए ऐसे सरोवर सुशोभित हो रहे थे जिनमें रहनेवाले चकवोंका समूह जिनेन्द्ररूपी सूर्यकी कान्तिके कारण रात्रिके समय वियोगको प्राप्त नहीं होता था और कमलोंका समूह मधुररसके प्रवाहोंसे मत्त भ्रमरोंके द्वारा सुन्दरताको प्राप्त होता रहता था ॥२५॥ ६४३) त्रिविधेति-जो आकाश ३५ मध्य और पातालके भेदसे तीन प्रकारकी गतियोंमें (पक्ष में नरक, तियेच और मनुष्य इन तीन गतियों में ) भ्रमण कर खेदको प्राप्त हुई थी, जो मदिरासे अधिक सन्तोषको प्राप्त करती थी (पक्षमें जो देवोंको अधिक सन्तुष्ट करनेवाली थी) और पंकजात-पापसमूहका सद उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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