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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
थे। एक विशेष प्रसंगवश प्रेरित होकर उन्होंने जैनधर्म - दर्शन को आत्मसात् किया। इतना ही नहीं वे उसमें तन्मय हो गये। अनेकानेक विषयों पर उन्होंने ग्रन्थों की रचना की। यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि जैन साधना पद्धति को योग की विधा में ढालने का उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया, वह जैन इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा। उन्होंने इस संबंध में अपना मौलिक चिन्तन प्रकट करते हुए स्वतंत्र रूप से योग पर 'जैनयोग' की संस्कृत एवं प्राकृत में रचना की। हरिभद्र जैनयोग के संप्रतिष्ठापक कहे जा सकते हैं। इस परम्परा को उत्तरवर्ती अनेक जैनाचार्यों और लेखकों ने वृद्धिंगत किया। किन्तु जहाँ तक ध्यान-साधना का प्रश्न है, वह जैन परम्परा में अतिप्राचीन काल से स्वीकृत रही है। महावीर की ध्यानसाधना का उल्लेख आचारांग जैसे प्राचीनतम जैनागम में आज भी सुरक्षित है। जैन दर्शन की चतुर्विध ध्यान की अवधारणा अपनी मौलिक है। स्थानांग, समवायांग आदि आगमों में इन चारों ध्यानों के लक्षणों, अवलम्बनों एवं उपप्रकारों का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
यद्यपि जैन ध्यान-साधना पद्धति को हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि ने अन्य परम्पराओं से कुछ तत्त्वों को ग्रहण कर पल्लवित एवं पुष्पित किया है, फिर भी उनकी मूल दृष्टि आगम पर ही आधारित रही है। आगम:
आगम शब्द की व्युत्पत्ति 'आ' उपसर्ग पूर्वक - ‘गम्' धातु में घञ्' प्रत्यय लगाने से होती है। इसके अनेक अर्थ बनते हैं। जैसा-जैसा प्रसंग होता है वैसावैसा अर्थ आगम शब्द से ग्रहण कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ - लताओं पर नये पत्तों का निकलना भी आगम कहलाता है, जैसे - “लतायां पूर्णलूनायां प्रसूनस्य आगमः कुतः"। शब्द रूप में अक्षरों का आना भी आगम कहलाता है। प्रस्तुत प्रसंग में आगम का अर्थ है - परम्परागत धार्मिक सिद्धान्त ग्रंथ।
पुरातन जैन आचार्यों ने आगम शब्द की अनेकविध व्याख्याएँ की हैं। जैसे 'आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्ध्यन्ते यथा अनेनेत्यागमः' अर्थात् जिससे वस्तु तत्त्व
4. संस्कृत हिन्दी कोश, ले. वामन शिवराम आपटे पृ. 139-40 5. रत्नाकरावता रिकावृत्ति
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