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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड: प्रथम
ध्यान के स्वरूप और भेद, पिण्डस्थ ध्यान की धारणाओं के अतिरिक्त शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व और कामतत्त्व के रूप में ध्यान का गहन निरूपण किया गया है।
आचार्य सोमदेव सूरि ने भी योग के विषय में योगमार्ग ग्रन्थ लिखा है। यशस्तिलकचम्पू के 39 वें और 40 वें कल्प में भी उन्होंने योगविषयक चर्चा प्रशस्त पद्धति से की है।
आचार्य भास्करनन्दि ने अपनी लघुकृति 'ध्यानस्तव' में ध्यान का सुव्यवस्थित व क्रमबद्ध वर्णन किया है। आचार्य सकलचन्द्र ने 'ध्यान दीपिका' की रचना की है लेकिन इस ग्रन्थ के परिशीलन और पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक संकलनात्मक ग्रन्थ है। इसमें जो अर्द्धमागधी की गाथाएँ आयी हैं वे अधिकांशत: आचार्य हरिभद्रसूरि रचित योगशतक से ली गई हैं। संस्कृत के कतिपय श्लोक आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव व हेमचन्द्र के योगशास्त्र से उद्धृत हैं। इस ग्रन्थ में ध्यान की आवश्यक भूमिका के रूप में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य भावनाओं का वर्णन है। तत्पश्चात् अनित्यादि द्वादश भावनाओं का विवेचन है।
जैन साहित्य में योगप्रदीप नामक कृति सुप्रसिद्ध है। इस लघु कृति में रचयिता ने योग जैसे गंभीर विषय पर संक्षेप में जो प्रकाश डाला है वह वास्तव में गागर-मेंसागर भरने जैसा उपक्रम है। यह सारभूत संग्राहक कृति है। इसका मुख्य विषय
आत्मस्वरूप का दर्शन या साक्षात्कार है। आत्मा अपने शुद्ध परमात्मभाव के रूप में किस प्रकार परिणत हो सकती है तथा कैसे सर्वसंकल्पवर्जित परमात्मपद को प्राप्त कर सकती है इस विषय का प्रस्तुत कृति में विशेष रूप से निरूपण हुआ है। उपाध्याय यशोविजय जी ने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतारबत्तीसी, पातंजलयोगसूत्रवृत्तिः, योगविंशिका टीका, योगदृष्टि की सज्झाय आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। अध्यात्मसार में जैन परम्परा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन है। अध्यात्मोपनिषद् में योगवासिष्ठ और तैत्तिरीय उपनिषद् के महत्त्वपूर्ण उद्धरण देकर जैन दर्शन के साथ तुलना की गयी है। योगावतारबत्तीसी में पातंजलयोगसूत्र में जो योगसाधना का वर्णन है, उसका जैनदृष्टि से विवेचन किया गया है। उन्होंने जैन दृष्टि से पातंजल योगसूत्र पर भी एक लघुवृत्ति लिखी है। अध्यात्मयोगी आनन्दघन कृत 'चौबीसी व उनके स्फुट पदों में तथा योगिराज श्रीमद् ~~~~~~~~~~~~~~~ 22 ~~~~~~~~~~~~~~~
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