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खण्ड: प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आयी है। भगवान महावीर के समय भगवान पार्श्वनाथ की चातुर्याम परम्परा के श्रमण भी विद्यमान थे। एक बार ऐसा प्रसंग बना - भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम
और पार्श्व परम्परा के प्रमुख सन्त केशी स्वामी का मिलन हआ। दोनों में इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श हुआ। गौतम ने वहाँ बड़ा ही सुन्दर समाधान दिया। उन्होंने बताया कि प्रथम तीर्थंकर के समय लोग ऋजु - जड़ होते हैं - अर्थात् बहुत सरल होते हैं। इन्हें हर किसी बात को बहुत ही स्पष्ट और विस्तृत रूप में समझाना होता है। इसलिए इन्हें समझाने के उद्देश्य से पाँचों व्रतों का पृथक् - पृथक् उपदेश किया गया। अन्तिम तीर्थंकर के समय लोग वक्रजड़ होते हैं। वे किसी विषय का स्पष्ट उल्लेखविवेचन न होने पर कुछ अवांछित मार्ग निकाल लेने का प्रयास कर सकते हैं। वे ऐसा न कर सकें, अतएव भगवान महावीर ने पाँच महाव्रतों का पृथक्-पृथक् अति स्पष्ट रूप से उपदेश दिया, विश्लेषण किया। द्वितीय से तेबीसवें तीर्थंकर तक के लोग 'ऋजु प्राज्ञ' कहे गये हैं। वे स्वभाव से ही सरल होते हैं। साथ-ही-साथ प्रज्ञाशील भी होते हैं। संक्षेप में उपदिष्ट विषय को भी भली-भाँति समझने में सक्षम होते हैं। अत: मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया जाता रहा। अभिप्राय यह है कि चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रतों में तत्त्वत: कोई अन्तर नहीं है, केवल कथनभेद है।
कतिपय मतमतान्तर
उक्त छह शास्ताओं के अतिरिक्त कुछ छोटे-मोटे शास्ता और भी थे जो अपनेअपने मत का प्रचार-प्रसार समाज में कर रहे थे। ‘ब्रह्मजाल सुत्तं' के बासठ दार्शनिक मत इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं। इन्हें गंभीर, दुर्बोध आदि कहा गया है।
___ ‘सूत्रकृताङ्ग' में दार्शनिक मत-मतान्तरों की संख्या 363 बताई गई है। ये 363 मत मुख्यतया चार भागों में विभाजित किये गये हैं - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक। इनके अतिरिक्त यज्ञ, भूत, प्रेत, पशु आदि की भी पूजा की जाती थी। कई ऐसे सम्प्रदाय भी थे जो ब्राह्मण संस्कृति के और श्रमण संस्कृति के कुछ-कुछ सिद्धान्तों को मानकर चलते थे।
___ 'औपपातिक सूत्र' में वानप्रस्थों, प्रव्रजित श्रमणों और परिव्राजकों आदि का उल्लेख हुआ है। उनकी चर्या न तो सर्वथा ब्राह्मण संस्कृति के सिद्धान्तों से संगति
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