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________________ किया है। इससे ऐसा लगता है कि वे भी शुभचन्द्र के समान ही शैव तान्त्रिकों की ध्यान परम्परा से प्रभावित रहे। यही कारण है कि उन्होंने भी पिण्डस्थ आदि ध्यानों की और पार्थिवी आदि धारणाओं की चर्चा की। उनके इस ग्रन्थ में शुभचन्द्र की परम्परा का अनुसरण देखा जाता है। प्रस्तुत प्रबन्ध का सप्तम अध्याय आचार्य हेमचन्द्र से सम्बन्धित है। आचार्य हेमचन्द्र का काल लगभग बारहवीं शताब्दी है। अत: ये शुभचन्द्र के परवर्ती हैं। उनके योगशास्त्र में जिन पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार ध्यानों का और पार्थिवी आदि धारणाओं का वर्णन मिलता है उसकी चर्चा हम शुभचन्द्र के साथ कर चुके हैं। वहाँ हमने यह भी बताने का प्रयास किया है कि आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में इन धारणाओं का जैन परम्परा के साथ किस प्रकार समायोजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने अपने ग्रन्थ में ध्यान साधना के साथ-साथ प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा का भी उल्लेख किया है। यह उल्लेख शुभचन्द्र आदि में भी पाया जाता है। इससे ऐसा लगता है कि लगभग दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक जैन ध्यान विधि एक ओर योगसाधनाविधि और दूसरी ओर शैव तान्त्रिकों की विधि से प्रभावित रही है। हेमचन्द्र की विशेषता यह है कि उन्होंने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार ध्यानों पर स्वतन्त्र अध्याय लिखे हैं। साथ ही प्राणायाम और प्रत्याहार के द्वारा परकाय प्रवेशविधि का तथा विभिन्न शुभाशुभ संकेतों के आधार पर मृत्यु के काल-ज्ञान की विधि का भी विकास किया। यद्यपि इनका सम्बन्ध सीधे रूप से ध्यानसाधना से नहीं है। _ 'योगप्रदीप' का उल्लेख 'पंच परमेष्ठिमंत्रराज ध्यानमाला' में आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और पतंजलि के योगसूत्र के साथ हुआ है। यह तो निश्चित है कि योगप्रदीप हेमचन्द्र से परवर्ती है। ध्यानसाधना के क्षेत्र में इसका विशिष्ट महत्त्व इस दृष्टि से माना जा सकता है कि इस पर तान्त्रिक ध्यानसाधना का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक हुआ। इसमें षट्चक्र और चार पीठ का उल्लेख भी मिलता है। इसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि यह रचना भी तान्त्रिकों के प्रभाव से मुक्त नहीं है। इसके साथ ही इसमें आठ योगांगों की चर्चा भी विस्तार से उपलब्ध होती है। इस प्रकार इस कृति में प्रस्तुत ध्यानसाधना भी अष्टांगयोग और शैव तन्त्र से अप्रभावित नहीं है। चाहे हमें कृति का काल स्पष्ट ज्ञात न हो किन्तु हम इतना कह सकते हैं कि यह कृति हेमचन्द्र के योगशास्त्र से प्रभावित है और उसका अनुसरण भी करती है। (8) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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