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________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम से संयम स्वत: घटित हो जायेगा। फिर मन, वचन और शरीर की अपेक्षाएँ साधक को विचलित नहीं करेंगी। उसके साथ उपेक्षा-मन, वचन और शरीर का संयम स्वत: ही हो जायेगा। 10. भावना : जिस विषय का अनुचिन्तन बार-बार किया जाता है या जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित हो जाता है, इसलिए उस चिन्तन या अभ्यास को भावना कहते हैं।45 ध्यान की योग्यता के लिए चार भावनाओं का अभ्यास आवश्यक है। ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना और वैराग्य भावना। भावना के अभ्यास के अनेक प्रयोजन हैं आत्म-संस्थिति, समस्या समाधान, शांति, वांछनीय संस्कारों का निर्माण और अवांछनीय संस्कारों का उन्मूलन । 11. अनुप्रेक्षा : ध्यान का अर्थ है प्रेक्षा, देखना। उसकी समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। प्रमुखत: चार अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास किया जाता है। 1. एकत्व अनुप्रेक्षा, 2. अनित्य अनुप्रेक्षा, 3. अशरण अनुप्रेक्षा और 4. संसार अनुप्रेक्षा। प्रेक्षाध्यान में अलग-अलग तेईस अनुप्रेक्षाओं का विवेचन एवं प्रयोग उपलब्ध है। साधक उनका प्रयोग कर जीवन में सफलताएँ हासिल कर सकता है। 12. एकाग्रता : साधक की साधना एकाग्रता पर निर्भर करती है। जैसेजैसे एकाग्रता सघन होती जाती है, निर्विचार अवस्था आ जाती है। इस अवस्था में मस्तिष्क में अल्फा तरंगें प्रभावित होती हैं और व्यक्ति अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। एकाग्रता के लिए अप्रमाद और जागरूक भाव परम आवश्यक है। किन्तु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है जब ये लम्बे समय तक निरन्तर रहें। देखने और जानने की क्रिया में बार-बार व्यवधान न आए। चित्त उस क्रिया में प्रगाढ़ और निष्प्रकम्प हो जाए। अन्तर्मुहर्त तक एक आलम्बन पर चित्त को प्रगाढ़ स्थिरता के साथ अभ्यास में लगाएँ। इस अवधि के बाद ध्यान की धारा रूपान्तरित होती है। आगे साधक अपने दीर्घकालीन प्रयास से धारा को नये रूप में पकड़कर उसे और प्रलम्ब बना देता है। आध्यात्मिक साधना पारलौकिक उन्नति की द्योतक तो है ही किन्तु उससे 45. पासनाहचरिअं, पृ. 460 ~~~~~~~~~~~irioin 47 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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