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खण्ड: नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
की विशुद्धि है। लेश्या की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि होती है और अध्यवसाय की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है, भावों की शुद्धि होती है।
लेश्या के दो भेद हैं : द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। पौद्गलिक लेश्या और आत्मिक लेश्या। वह निरन्तर बढ़ती रहती है। लेश्या प्राणी के ओरा (आभामण्डल) का नियामक तत्त्व है। भावों के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं।
हमारी सूक्ष्म चेतना, सूक्ष्म शरीर के स्तर से निकलने वाली भाव रश्मियों और भाव तरंगों का नाम है लेश्या।
कषाय की तरंगें और कषाय की शुद्धि होने पर आने वाली चैतन्य की तरंगेंइन सब तरंगों का भाव के रूप में निर्माण करना और उन्हें विचार, कर्म और क्रिया तक पहुँचाने का कार्य लेश्या करती है अर्थात् सूक्ष्म शरीर से स्थूलशरीर के बीच सम्पर्क सूत्र है लेश्या। इस के छह भेद हैं
1. कृष्ण लेश्या, 2. नील लेश्या, 3. कापोत लेश्या, 4. तेजोलेश्या, 5. पद्म लेश्या, 6. शुक्ल लेश्या।
ये प्रत्येक प्राणी में होती हैं पर इनमें कोई लेश्या प्रधान होती है कोई गौण !
लेश्या के परिवर्तन के द्वारा ही जीवन में रूपान्तरण सिद्ध हो सकता है। साधना का प्रयोग लेश्याजनित स्वभाव के आधार पर निर्धारित करना चाहिए। लेश्या
स्वभाव
साधना 1. कृष्ण लेश्या प्रधान आर्त
भजन 2. नील लेश्या प्रधान प्रमत्त (अजगर वाचिक जप
की भाँति) 3. कापोत लेश्या प्रधान चंचल (प्रमत्त वाचिक जप
बंदर की भाँति) 4. तेजो लेश्या प्रधान अचपल
एकाग्रता ध्यान 5. पद्म लेश्या प्रधान प्रशान्त
निर्विकल्प ध्यान 6. शुक्ल लेश्या प्रधान उपशान्त
दीर्घकालीन निर्विकल्प ध्यान 39. मूलाराधना 7.1911 40. भीतर की ओर, पृ. 136 wwwwwwwwwwwwwww. 45 ~~~~~
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