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________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम वस्तुत: कायोत्सर्ग की एक विधि विशेष है। दोनों भुजाओं को लटकाकर दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर तथा दृष्टि को पैरों के अंगूठे पर केन्द्रित करने को जिनमुद्रा कहते हैं । इसी प्रकार पद्मासन या पल्यंकासन में बैठकर दोनों हाथों की हथेलियों को एक के ऊपर एक रखकर तथा दृष्टि को नासाग्र पर स्थिर रखने को योगमुद्रा कहते हैं । वस्तुतः इन मुद्राओं का प्रयोजन शारीरिक स्थिरता भी है। जब तक शरीर चंचल रहता है चित्त भी स्थिर नहीं हो पाता । अतः चित्तवृत्तियों की एकाग्रता के लिए शरीर की एकाग्रता आवश्यक मानी गयी है । शरीर की स्थिरता पर ही मन की स्थिरता बनती है। जैन परम्परा में कायोत्सर्ग के पूर्व तीन आवश्यक शर्ते हैं। एक शरीर की स्थिरता, वचन की मौनता और चित्त की एकाग्रता । पूज्या महासती जी का मानना है कि जब तक शरीर स्थिर नहीं होगा, वाणी का मौन नहीं होगा तब तक चित्त की स्थिरता सम्भव नहीं होगी । अत: आपने चित्त की स्थिरता के लिए मुद्राओं के महत्त्व को विशेष रूप से रेखांकित किया है। मुद्रा के माध्यम से दैहिक गतिविधियाँ स्थिर होती हैं और उन दैहिक गतिविधियों के स्थिर होने से मन में भी स्थिरता आती है। स्थिर मन में प्रसन्नता या आनन्द की अनुभूति होती है। उनका मानना है कि तनावों से मुक्ति के लिए, हमें ध्यान के इस प्रथम अंग पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। सामान्यतया आज ध्यान की जो विधियाँ प्रचलित हैं वे इस प्राथमिक आवश्यकता को दृष्टि से ओझल कर देती हैं । यही कारण है कि दैहिक स्थिरता के अभाव में ध्यान की विविध पद्धतियाँ लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही हैं। इसीलिए पूज्य साध्वीजी ने ध्यानविधि में मुद्राओं की आवश्यकता को विशेष रूप से रेखांकित किया है। जैन ध्यान साधना की विकासयात्रा में आपका यह दृष्टिकोण निश्चित रूप से मूल को पकड़ने जैसा है। अपनी ध्यान साधना विधि में आपने मुख्य रूप से चित्त को केन्द्र में ही माना है किन्तु उसके लिए मुद्रा को प्राथमिक आवश्यक बताया है। उनकी यह बात जैन परम्परा से भी सम्मत लगती है क्योंकि कायोत्सर्ग या ध्यान करने के पूर्व जैन परम्परा में जो " तस्स उत्तरी" या " आगार सूत्र " बोला जाता है उसमें स्पष्ट रूप से अन्तिम वाक्य " ठाणेणं मोणेणं झाणेण अप्पाणं वोसिरामि" है ठाणेणं का अर्थ दैहिक स्थिरता ही है और उसे ही मुद्रा कहा जाता है और वही ध्यान साधना का प्रथम चरण है। इस प्रकार पूज्या महासती जी ने जैन ध्यान विधि में मुद्रा को महत्त्व देकर अपना विशेष योगदान किया है। 31 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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