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________________ खण्ड: नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम जी का अनेक बार मिलना-जुलना होता रहा है। परस्पर साधना-विषयक विचारों का आदान-प्रदान, परीक्षण-समीक्षण आदि होता रहा है। आपकी सदैव यह मानसिकता रहती है कि आपकी सद्वस्तु औरों तक पहुँचे तथा औरों के सद्गुण, सद्वस्तुओं से हम लाभान्वित हों। इसे आपका सौभाग्य ही मानना चाहिए कि वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर जैनधर्मदिवाकर, आगमों के उद्भट विद्वान् योगिराज श्री आत्माराम जी म. सा. का निरन्तर छह मास का सान्निध्य आपको प्राप्त हुआ। महासती जी को सुयोग्य शिष्या जानते हुए पू. आत्माराम जी म.सा. ने अपने बहुमूल्य ज्ञान रूपी रत्न आपको सस्नेह समर्पित किये क्योंकि वे जानते थे कि आप उनका आत्म-कल्याण और लोककल्याण में सदुपयोग करती रहेंगी। उन्होंने अपनी रहस्यमय साधना के सूत्र भी आपके समक्ष उद्घाटित किये। राजस्थान, मालवाप्रदेश, पंजाब, काश्मीर, सौराष्ट्र आदि यात्राओं में जहाँ एक ओर महासती जी द्वारा धर्मोद्योत का महान् कार्य चलता, साथ-ही-साथ आप अपनी ध्यानमूलकसाधना में निरन्तर संप्रवृत्त रहती तथा जहाँ भी अवसर-सुयोग मिलता महान् सन्तों-साधिकाओं के साथ आध्यात्मिक विचार-विमर्श करतीं। इसे आप अपनी ज्ञानाराधना और साधना का ही अंग मानती हैं। __महासती जी की यह भावना है कि जैन आचार्यों के योगविषयक ग्रन्थ यदि हिन्दी अनुवाद के साथ जन-जन के हाथों में आयें तो वे उनके लिए बड़े कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। यही कारण है कि उनकी प्रेरणा से सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. छगनलाल जी शास्त्री ने आचार्य हरिभद्र के द्वारा रचित योगदृष्टि-समुच्चय', 'योगबिन्दु', 'योगशतक', 'योगविंशिका' नामक चार ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद और विवेचन प्रस्तुत किया। इन ग्रन्थों का योगचतुष्टय' के नाम से सन् 1981 में मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन समिति, ब्यावर की ओर से प्रकाशन हुआ। इन चारों ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद होने एवं उसके प्रकाशित होने का यह पहला अवसर था, जिसका श्रेय परम श्रद्धेया गुरुवर्या श्री उमरावकुंवर जी म.सा. 'अर्चना' को है। जैन विद्या के क्षेत्र में यह ग्रन्थ आज समस्त भारतवर्ष में अध्ययन-अध्यापन के उपयोग में आता है। ध्यान का महासतीजी के साथ वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा देह के साथ अन्न एवं जल का। जैसे शरीर टिकाने हेतु इनका उपयोग आवश्यक है वैसे ही महासती xmmmmmmmmmmmmmm 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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