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खण्ड: नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
सान्निध्य में रहे, अनवरत साधना में संलग्न रहे। जब मन सर्वथा तन्मयता-पूर्वक किसी कार्य में झुक जाता है तो स्वल्पकाल में ही वैसी सफलतायें प्राप्त कर लेता है जो
औरों द्वारा बहुत लम्बे समय में भी उपलब्ध नहीं की जा सकतीं। आपने अपने छह वर्षीय अज्ञात साधना-काल में योग की उच्च भूमिका का संस्पर्श किया। अनेक योगविभूतियाँ या लब्धियाँ अर्जित कीं।
मन तो आपका समग्र जीवन वहीं बिताने का था, किन्तु पारिवारिक दायित्व बोध को सोचते हुए अनासक्त भाव से उसका निर्वहन करने की दृष्टि से आप घर लौट आये। सर्वथा निष्क्रिय, आकांक्षा-शून्य, उदासीन भाव से अपने लौकिक कार्य करते हुए, घर में रहने पर भी आपका ध्यान साधना में ही रहता और अपना अधिकांश समय आप मन्दिर आदि एकान्त स्थानों में ही ध्यान-साधना में व्यतीत करते। महासती जी महाराज तब बालिका अवस्था में थीं किन्तु आपकी भी नैसर्गिक प्रतिभा अत्यन्त प्रखर और तीव्र थी। अपने पिताश्री के जीवन को आप बड़ी सूक्ष्मता से निहारतीं। संसार के अन्यान्य लोगों से उनमें विलक्षणता देखतीं। पिताश्री के योगलब्धिजनित चामत्कारिक प्रसंगों को जब देखतीं तो सहसा आपके मन में आता, यह कौनसा रहस्य है, गुणतत्त्व है जिसके परिणामस्वरूप पिताश्री का सबसे पृथक् एक अद्भुत व्यक्तित्व है। आपका मन उस रहस्य की खोज में खोया रहता। भीतर-ही-भीतर आपके चित्त में भी विरक्ति भाव की साधना एवं आध्यात्मिक ऊर्ध्वगामिता का उद्वेलन होता रहता।
आचार्य हरिभद्र के विवेचन के अनुसार यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महासती जी में कुलयोगी के जन्मजात संस्कार थे। पैतृक वातावरण ने उनको जागृत होने का विशेष बल प्रदान किया। हृदय में उठते, उपजते, बढ़ते इन भावों का परिणाम आपकी श्रामण्य दीक्षा के रूप में परिसम्पन्न हुआ। स्थानकवासी श्रमण संघ मरुधरामंत्री मुनि श्री हजारीमल जी म.सा. की छत्रछाया में महासतीजी गुरुणीवर्या श्री सरदारकुंवर जी की अन्तेवासिनी के रूप में आप दीक्षिता हुईं।
जब किसी अंकुरित पादप को समुचित भूमि, वायु, जल, प्रकाश आदि अनुकूल साधनों का सहयोग मिल जाता है तो वह स्वल्पकाल में ही विकसित, संवर्द्धित, पल्लवित और पुष्पित होने लगता है। महासती जी के जीवन में ऐसा ही घटित हुआ। अपने गुरुदेव हजारीमल जी म.सा., उनके गुरुबन्धु स्वामी जी श्री ब्रजलाल
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