SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम __उनके युवाहृदय में जैन संस्कृति, विद्या और साधना के विकास के अनेक स्वप्न थे, जिन्हें पूरा करने के लिए वे अपने सहवर्ती साधुओं सहित संलग्न हुए। उनका ऐसा चिन्तन था कि जैन आगम, शास्त्र तथा तत्सम्बद्ध विषयों के उच्चस्तरीय अध्ययन, अनुसंधान, अनुशीलन आदि का अधिकाधिक प्रसार हो। इसके लिए लाडनूं (राजस्थान) में जैन विश्वभारती संस्थान की स्थापना की गई। उससे कई वर्ष पूर्व दीक्षार्थिनी बहनों के अध्ययन के लिए पारमार्थिक शिक्षण संस्थान नामक विद्यापीठ की स्थापना हो चुकी थी, जिसमें दीक्षार्थिनी बहनों के अध्ययन तथा श्रमणजीवनोचित क्रियाभ्यास आदि की सुन्दर व्यवस्था है। वह संस्था इस समय ब्राह्मी विद्यापीठ के रूप में कार्यरत है। जैन विश्व भारती में अध्ययन-अध्यापन, साहित्य-सर्जन-अनुसंधान आदि के कार्य उत्तरोत्तर बढ़ते गये तब उसे (Deemed University) मान्य विश्वविद्यालय का स्थान प्राप्त कराने का समाज की ओर से प्रयत्न किया गया। संस्थान की गतिविधि का अवलोकन-पर्यवेक्षणकर उसे भारत सरकार और यू.जी.सी. की ओर से 'डीम्ड यूनिवर्सिटी' की मान्यता प्रदान की गई। प्राकृत, जैनदर्शन, जीवन विज्ञान, अहिंसादर्शन इत्यादि के रूप में वहाँ अनेक विभाग कार्यशील हैं। अनेक छात्र-छात्राएँ अनुसंधान में रत हैं। पत्राचार के रूप में बी.ए. तथा एम.ए. के पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। इस प्रकार यहाँ जैन-विद्या के व्यापक प्रसार का एक सुन्दर उपक्रम है। उनके आचार्यकाल का दूसरा चरण जन-जन के आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। उन्होंने जैनधर्म की व्रत-परम्परा के आधार पर लोकजनित दृष्टि से एक ऐसे आन्दोलन का संप्रवर्तन किया जिसके आधार पर जन-जन की नैतिक बुराइयाँ दूर हो सकें और वे आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ़ सकें। जैन आगमों का विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक रूप में उनके सान्निध्य में संपादन हुआ जिसका मुख्य दायित्व उनके प्रमुख अन्तेवासी मुनि श्री नथमल जी, वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ पर रहा। आचार्य तुलसी ने संस्कृत में 'जैन सिद्धान्त दीपिका' एवं 'भिक्षु न्यायकर्णिका' ग्रन्थों की रचना की। राजस्थानी के वे प्रखर प्रतिभाशाली महाकवि थे। अपने गुरुवर्य आचार्य श्री कालूगणि के जीवन पर उनके द्वारा रचित 'कालू यशोविलास' नामक महाकाव्य है जो निस्सन्देह राजस्थानी साहित्य ~~~~~~~~~~~~~~~ 15 xxxxxxxxxxxxxxx Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy