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________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना खण्ड : नवम नहीं था किन्तु वे मस्तक पीड़ा से, जो चिकित्सा द्वारा नष्ट नहीं हो सकी, बहुत ही दुःखी थे। वे विपश्यना के एक शिविर में गये। यद्यपि उन्हें कहा गया कि यह कोई शारीरिक चिकित्सा का केन्द्र नहीं है फिर भी गोयनकाजी ने विपश्यना के साधना शिविर में भाग लिया। __ श्वास नि:श्वास को देखने, उस ओर अभ्यास करने का विविध रूपों में क्रम चला। श्री गोयनका ने भी शिविरार्थियों के साथ उसका अभ्यास किया। पहले तो उन्हें यह सब बड़ा नीरस लगा और वे शिविर से लौटने की तैयारी करने लगे। साथियों के समझाने पर वे शिविर के समापन तक रुके। धीरे-धीरे उन्हें कुछ परिवर्तन प्रतीत होने लगा। उनकी उसमें अभिरुचि बढ़ती गई। शिविर के समाप्त होते-होते उन्होंने अनुभव किया कि वे मस्तक पीड़ा से मुक्त हो गये हैं। उन्होंने उसे जीवन का एक नया प्रकाश माना। गोयनका को इससे एक नया जीवन मिला। वे ऊ. वा खिन महोदय का सान्निध्य प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न करते रहे। ऊ.वा. खिन ने बर्मा के किसी बौद्ध भिक्षु से विपश्यना की ध्यान साधना पद्धति उसके मूल रूप में, जैसी वह वहाँ प्रचलित थी, प्राप्त की। श्री ऊ.वा. खिन एक उच्च राजकीय अधिकारी थे। उपदेश या प्रचार-प्रसार उनका कार्य नहीं था। वे अपनी आन्तरिक शान्ति हेतु अभ्यास करते और अभिरुचिशील जनों को शिक्षण देने हेतु समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित करते। लोगों का इस ओर आकर्षण बढ़ता गया। बाह्य रोग निवारण आदि के साथसाथ मानसिक दृष्टि से भी विशेष फल दृष्टिगोचर होने लगे। जीवन में कार्यशक्ति का नवनिर्माण होने लगा। श्री ऊ.वा. खिन महोदय समय-समय पर अपने विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को भी अपने कार्यालय के एक पृथक् प्रकोष्ठ में अभ्यास कराते थे। आन्तरिक निर्मलता के साथ-साथ बाहरी दृष्टि से भी इसका बड़ा सुन्दर परिणाम दृष्टिगोचर हुआ। कर्त्तव्यनिष्ठा एवं चरित्रनिष्ठा की दृष्टि से भी विभाग के व्यक्तियों ने आशातीत उन्नति की। उस समय बर्मा के प्रशासन में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों में नैतिक दृष्टि से ह्रास दिखाई देता था। सरकार ने श्री ऊ. वा. खिन को अपने उनके विभाग के अतिरिक्त अन्य विभागों के अधिकारियों में भी विपश्यना अभ्यास का कार्यक्रम चलाने का अनुरोध किया। तदनुरूप व्यापक कार्यक्रम चलने लगा। उसका सुन्दर परिणाम दृष्टिगोचर हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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