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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड : अष्टम
ग्रन्थकार के शब्दों में ध्यान में ही अमृत रूप सर्वोत्कृष्ट पेय सन्निहित है। उन्होंने लिखा है कि हलाहल विष से परिपूर्ण नागलोक में, प्रतिदिन क्षीण होते चन्द्र में और अप्सराओं के साथ प्रेमक्रीड़ा में संलग्न देवों के लोक में भी अमृत कहाँ संभव है, ज्ञानीजनों द्वारा पान करने योग्य अमृत तो ध्यान में ही है। ध्यान से जनित, धैर्य के रूप जिस रस को ज्ञानी अनुभूत करता है वह रस न तो द्राक्षाओं में है, न शर्करा में, न अमृत में, न वनिताओं के अधरोष्ठ में ही प्राप्त होता है।22
भौतिक बाह्य रस अमृत आदि की विविध परिकल्पनायें इस लोक में तथा देवलोक में की जाती हैं। विविध मनोज्ञ, मधुर, सुन्दर पदार्थों में उसे सन्निहित माना जाता है। किन्तु उससे कदापि अविनश्वर सुख तृप्ति या शान्ति नहीं मिलती। जिस शान्ति के लिए जीव व्याकुल है वह शान्ति तो ध्यान साधना द्वारा उत्पन्न सन्तोष से ही प्राप्त होती है। ध्यान योगी इतना आत्मतृप्त, सन्तुष्ट या आत्मकाम हो जाता है कि उसे फिर तथाकथित बाह्य पदार्थों में कोई रसानुभूति नहीं होती क्योंकि तत्त्वत: यह सब मिथ्या है।
___परिपक्व सुदृढ़ अवस्था प्राप्त ध्यान से आविर्भूत फल की गरिमा-महिमा को अपने मन द्वारा भली भाँति समझकर जो उसमें प्रीति करता है, अभिरुचिशील बनता है, उस प्रौढ़ मनीषी तेजस्वी, साधक को शीघ्र ही यश:श्री कीर्ति रूपी लक्ष्मी अपनी ध्यान साधना में सफलतापूर्वक गतिशील होने से श्लाघनीयता प्राप्त होती है।23 अध्यात्मोपनिषद्
अध्यात्मोपनिषद् में शास्त्रयोग शुद्धि, ज्ञानयोग शुद्धि, क्रियायोग शुद्धि तथा साम्ययोग शुद्धि नामक चार अधिकारों में अध्यात्मयोग का विविध अपेक्षाओं से वर्णन किया गया है। शास्त्रयोग शुद्धि :- साधक के लिए सबसे पहले अपने मन का संमार्जन करना परम आवश्यक है। इस संसार में शास्त्र के नाम से अनेकानेक परम्पराओं के ग्रन्थ विद्यमान हैं। उन सबमें जो आत्मतत्त्व का भली भाँति दर्शन कराता है, जीवन के मोक्ष रूप परम लक्ष्य से परिचित कराता है, वही शास्त्र परम आदरणीय है अत:
22. वही, गा. 5.17.12-13 23. वही, गा. 5.17-14
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