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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
इसके अन्तर्गत साधक चिन्तन करता है कि अरिहंत प्रभु को अष्ट प्रातिहार्य आदि श्रेष्ठतम सम्पत्ति अतिशय उपलब्ध है। चक्रवर्ती सम्राट को एकछत्र राज्य-वैभव आदि प्राप्त है। नरकगत प्राणी घोर विपत्तियों और कष्टों से पीड़ित रहते हैं। इन सबका कारण उनके द्वारा किये गये अपने-अपने कर्म ही हैं।
_____ कर्मसिद्धांत निरूपित विपाक पर मन को एकाग्र करने से भावों में ऐसी निर्मलता और उज्ज्वलता आती है जिसके द्वारा साधक में कर्मनिर्मुक्त विशुद्ध आत्मस्वरूप का संस्फुरण होता है। संस्थानविचय ध्यान :
इस ध्यान का संबंध लोक के स्वरूप पर मन का एकाग्रता के साथ जुड़ना है। यह लोक अनादि और अनन्त है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। अपने मूल स्वरूप की दृष्टि से ध्रुव है, पर्यायों की दृष्टि से उत्पत्ति और विनाशयुक्त है। एतन्मूलक चिन्तन से साधक में वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध उत्पन्न होता है। इसे संस्थान विचय ध्यान कहा गया है।100 इस ध्यान से साधक आत्मानुभावित होता है तो वह अस्तित्व ... बोध का साक्षात्कार करता है। क्योंकि वह इस लोक के अनन्तानन्त प्राणियों में से एक है। यह ध्यान वस्तुतत्त्व की यथार्थ पृष्ठभूमि पर आश्रित है।
इस लोक में नाना प्रकार के अनेकानेक द्रव्य हैं। एक-एक द्रव्य के अनन्तानन्त पर्याय हैं। उन पर्यायों पर राग भाव करने से उन्हीं में व्यक्ति आसक्त बनता है। उन पर तात्त्विक दष्टि से चिन्तन करने से मन को एकाग्र करने से साधक के मन में राग-द्वेषादिजनित आकुलता मिट जाती है। वह उनसे विरत होने की दिशा में अग्रसर होता है।101 धर्मध्यान की आराधना का सुपरिणाम :
धर्मध्यान क्षायोपशमिक आदि भावों से सम्बद्ध है जो कर्मों के क्षय और उपशम से प्रस्फुटित होते हैं। ध्यान योगी ज्यों-ज्यों अपनी साधना में आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों लेश्याएँ क्रमश: पीत, पद्म और शुक्ल रूप में विशुद्धि प्राप्त करती जाती हैं। इसमें नितान्त वैराग्य भाव का उद्भव होता है। इससे योगी अतीन्द्रिय स्वसंवेद्य 99. वही, 10.12-13 100. वही, 10.14 101. वही, 10.15
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