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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम के विभिन्न पदार्थों में वही विविध रूपों में प्रतिभासित है। उसी से इस जगत् की समग्र प्रक्रिया प्रवर्तनशील है।4 भर्तृहरि से पूर्व शैव आगम में भी यह तत्त्व निरूपित हुआ है। वहाँ ऐसा उल्लेख हुआ है कि यह जगत् शब्द का ही परिणाम है। जगत् में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है - वह सब शब्द का ही विस्तार है। पाणिनीय दर्शन में तो यहाँ तक माना गया है कि एकशब्द: 'सम्यक्ज्ञात: सुष्ठुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुक् भवति।' भली-भाँति ज्ञात किया हुआ, जाना हुआ, सम्यक् रूप में प्रयुक्त हुआ एक शब्द भी स्वर्ग एवं लोक में कामधुक् होता है अर्थात् स्वर्ग एवं लोक में प्रयोक्ता के लिए यथेष्ट फल प्रदान करता है। . इससे प्रकट होता है कि वर्ण, शब्द एवं पद आदि का जैन एवं वैदिक परम्परा दोनों में ही न केवल लौकिक किन्तु पारलौकिक, आध्यात्मिक किंवा दार्शनिक महत्त्व भी रहा है। पदस्थ ध्यान की महती सार्थकता इससे सिद्ध होती है। पदस्थ ध्यान के अन्य प्रकार : ग्रन्थकार ने पदस्थ ध्यान का इस प्रकाश में और भी अनेक रूपों में विवेचन किया है। पंच परमेष्ठी मंत्र,7 पंचपरमेष्ठी विद्या, पंचदशाक्षरी विद्या, सप्त वर्ण मंत्र,80 ह्रींकार विद्या,81 क्ष्वी विद्या,82 प्रणव, शून्य तथा अनाहत,83 ओंकार,84 अष्टाक्षरी विद्या5 इत्यादि का ग्रन्थकार ने विशद रूप में वर्णन किया है जो 74. वाक्यपदीय 1.1 75. शैव आगम 1.120 76. सर्वदर्शनसंग्रह पाणिनि दर्शन पृ. 587 77. योगशास्त्र श्लोक 8.32 78. वही, 8.38 79. वही, 8.43 80. वही, 8.45 81. वही, 8.47-56 82. वही, 8.57 83. वही, 8.60-61 84. वही, 8.64 65 85. वही, 8.66271 ~~~~~~~~~~~~~~~ 38 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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