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________________ 44 पू. साध्वीजी श्री उदितप्रभा जी म. सा. 'ऊषा' ने "ध्यान" का आद्योपांत सर्वेक्षण करके, हमें ध्यान की 2600 वर्षो से ज्यादा समय की यात्रा कराई हैं । "ध्यान" को कर्म - निर्जरा का एक उत्तम माध्यम माना गया हैं । आत्म-चिंतन करतेहुए जब ध्यान में निर्विकल्पता की स्थिति बनती है, तो आत्मा से कर्म मल हटता है और आत्मा विशुद्धावस्था में पहुंचती है। सुगम आधार ऐसे सशक्त माध्यम को साधारण जनता के लिए सुलभ व आसान बनाने के लिए, समय समय पर, उस काल के अनुसार, मनीषियों ने उसका चिंतन व विकास किया हैं । काल के लम्बे प्रवाह में ऐसे पड़ाव भी आये, जब यह माध्यम विस्मृत होता गया । अवनति के उस दौर में उसकी उपयोगिता व प्रायोगिकता गौण हो गई। फिर किसी साधक और सुधारक द्वारा इसको कथित “नये - रूप" में परोसा गया। इस प्रकार विकास के साथ, "प्रचार और प्रसार " की प्रबलता और कमजोरी के अनुरूप, यह माध्यम भी समय-समय पर उजागर और विस्तृत हुआ है । डॉ. जीवराज जैन अभी आवश्यकता थी, ध्यान के इस लम्बे सफर को संपूर्ण रूप से खोज निकालकर प्रस्तुत करने की । जिससे आज जो विभिन्न रूप में, विभिन्न दृष्टिकोण से, अलग-अलग रूप में व नाम से यह माध्यम प्रसारित हो रहा है, उसको समग्र रूप से समझा जा सके। इसके अनेक रूप में चल रहे अभियान में निहित एक रूपता व सापेक्षता को समझा जा सके । Jain Education International उम्मीद है, उपसंहार में पू. साध्वी जी ने जो निष्कर्ष निकाला है, वो पाठकवृंद को इस समग्रता का दिग्दर्शन करायेगा । तथा ध्यान की विभिन्न नामों से पहचानी जाने वाली पद्धतियों को इस प्रकार विकसित करने में मदद करेगा कि यह माध्यम सर्वसाधारण के लिए, आत्मशोधन का एक आसान और सुलभ यान बन सके। हर स्कूल बच्चे को इसका आसान व प्रभावी अभ्यास कराया जा सके । आज की विकसित संचार व्यवस्था में, उनकी जीवनचर्या का यह एक अनिवार्य अंग बन सके । - For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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