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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम ARREARSARAN ध्यान के योग्य स्थान : · ध्यान का सम्बन्ध मुख्यत: आत्मा के साथ है। वह अन्तर्जीवन का विषय है। जब साधक में आत्मस्थता का भाव परिपुष्ट हो जाता है, रागात्मक वृत्ति परिक्षीण होने लगती है तो उसके लिए स्थान आदि बाह्य विषय गौण हो जाते हैं। वह जिस प्रकार एकान्त स्थान में ध्यानस्थ रहता है उसी प्रकार कोलाहलपूर्ण स्थान में भी अपने ध्यान को सहज ही अविच्छिन्न रख पाने में सक्षम होता है। कहा भी है - “निर्वृत्तरागस्य गृहं तपोवनम्।" जिसका राग मिट गया है, निवृत्त हो गया है, उसके लिए घर ही तपोवन है किन्तु जिनका अभ्यास प्रारम्भिक अवस्था में होता है, अपरिपक्व होता है, उनके लिए स्थान आदि बाह्य निमित्तों की अपनी उपयोगिता है। जो ध्यान साधना के प्रारम्भिक रूप में प्रवृत्त होते हैं उनके लिए वैसी बाह्य स्थितियों का होना अपेक्षित है, जहाँ उनके अभ्यास में बाधा आना आशंकित न हो। यद्यपि जहाँ ध्यान किया जाता है वह स्थान अभ्यासी को कुछ दे नहीं पाता किन्तु स्थान की साधना के अनुकूल-प्रतिकूल अवस्थिति के कारण साधक के मन पर प्रेरक या बाधक प्रभाव तो पड़ता ही है। इसलिए आचार्य हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए उपयोगी स्थानों का उल्लेख करते हुए लिखा है-वह ध्यानयोगी साधक जो आसनों को सिद्ध कर चुका हो, ध्यान के लिए ऐसे स्थान का चयन करे जो तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, कैवल्य या निर्वाण भूमि आदि ऐतिहासिक स्थल हों। ध्यान के सिद्ध होने में वहाँ मानसिक अनुकूलता रहना संभावित है। यदि वैसा संभव न हो तो वह विविक्त एकान्त स्थान को आश्रित कर ध्यान का अभ्यास करे।38 आचार्य ने अपनी स्वोपज्ञ टीका में एकान्त स्थान के विषय में विशेष रूप से यह उल्लेख किया है कि वह स्थान युवती, नपुंसक, कुशील मनुष्य आदि के संसर्ग से रहित हो।39 ऐसा उल्लेख करने का आशय यह है कि जिनका अभ्यास अपरिपक्व होता है, वैसे साधकों के लिए वहाँ विचलित होने की आशंका बनी रहती है। 38. योगशास्त्र, 4.123 पृ. 146 39. योगशास्त्र स्वोपज्ञ व्याख्या एवं हिन्दी अनुवाद सहित, पृ. 510 -~~~~~~~~~~~~mami 22 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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