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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान' का ऐतिहासिक विकास क्रम
हुआ है जिसमें मेत्ता (मैत्री), करुणा, मुदिता तथा उपेक्खा (उपेक्षा) का समावेश है।32 इनके अनुभावन से उपशम रूप निर्वाण पर ध्यान सुस्थिर होता है। इनको ब्रह्मविहार इसलिए कहा गया है क्योंकि इन भावनाओं के अभ्यास का फल ब्रह्म-लोक में जन्म लेना तथा वहाँ को आनन्दमय वस्तुओं का उपभोग करना है। यहाँ मुख्य रूप से अभिधेय यह है कि ब्रह्मविहार संज्ञक ये चारों भावनायें ध्यानात्मक एकाग्रता में सहायक हैं। बौद्ध धर्म में इन भावनाओं के द्वारा चित्त को समाहित करने का उपदेश दिया गया है।
मेत्ता-मैत्री भावना प्रथमत: अपने ही ऊपर की जानी चाहिए। सबसे पहले अपने कल्याण की भावना रखना अपेक्षित है। तदनन्तर अपने गुरुजन तथा अन्य सम्बन्धियों के हित कल्याण का अनुचिन्तन किया जाना चाहिए। तत्पश्चात् अपने शत्रुओं पर भी मैत्री भावना रखनी चाहिए। वहाँ स्व और पर का सीमाविच्छेद करना नितान्त आवश्यक माना गया है।
दुःखित प्राणियों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता तथा अपुण्यात्माओं के प्रति उपेक्षा का भाव रखा जाना चाहिए।
उपर्युक्त चारों भावनाओं पर जैन, बौद्ध तथा पातंजल योग तीनों का विवेचन भावात्मक दृष्टि से लगभग एक जैसा है। तीनों ही ने इनके महत्त्व को स्वीकार किया है। इतना अवश्य है कि बौद्ध धर्म में स्वकल्याण, सम्बद्ध कल्याण तथा शत्रुवृन्द के कल्याण की भावना के रूप में मैत्री की तीन श्रेणियाँ निरूपित की हैं। जैनधर्म और पातंजल योग में वैसा नहीं है। वहाँ सभी को एक श्रेणी में लिया गया है। साधक का मन इतना निर्मल हो जाता है कि वहाँ अपने-पराये का भेद ही नहीं रहता। अन्त:करण प्राणी मात्र के प्रति मित्र भाव से मुदित रहता है -
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ इसी प्रकार
32. विसुद्धिमग्ण परिच्छेद 9 पृ. 200-201 33. बौद्ध दर्शन मीमांसा पृ. 342
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