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अभिसम्मत
रणजीतसिंह कूमट
महासती श्री उदितप्रभा जी म. सा. 'ऊषा' ने "जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम" पर शोध ग्रन्थ लिख कर साहित्य और साधना दोनों की अपूर्व सेवा की है। "ध्यान" वीतरागता प्राप्त करने की साधना का अभिन्न ही नहीं शीर्षस्थ अंग है । तप के बारह भेदों में प्रथम छः बाह्य तप कहलाते हैं और बाकी के छः तप आन्तरिक तप कहलाते हैं जिनमें स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग शामिल हैं। आभ्यान्तर तप ही साधना का मूल अंग है और जब तक साधक अपने अन्तर में डुबकी नहीं लगाता, बाह्य साधना समुद्र के किनारे पर सीप और कंकर इकट्ठे करने के समान है । यह एक विडम्बना है कि वर्तमान में प्रचलित जैन साधना पद्धति में ध्यान की अपेक्षा व्रत, उपवास आदि बाह्य तप पर अधिक जोर है न कि ध्यान व कायोत्सर्ग पर । साधक ध्यान व कायोत्सर्ग से आत्मानुभूति करता है, स्व-बोध, समाधि व प्रज्ञा प्राप्त करता है और इस प्रकार जीवन का लक्ष्य साधता है। ध्यान जैन साधना का अभिन्न अंग प्रारम्भ से ही रहा है इस बात को भगवान ऋषभदेव के काल से सिद्ध करने का प्रयत्न किया परन्तु ऐतिहासिक प्रमाण जुटाना संभव नहीं है। आगम काल के साहित्य व मूर्ति कला से प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि जैन साधना में ध्यान की परम्परा रही है और इस पर काफी जोर भी था । आगम साहित्य में प्रथम अंग " आचारांग सूत्र" के नवम अध्याय में वर्णित महावीर की साधना से प्रमाणित होता है कि ध्यान साधना ही उनकी प्रमुख साधना थी और वह साधना कितनी ही कष्टप्रद, दुरुह, पीडाकारी और विरोधीजन के बीच रही हो भगवान महावीर ने अपनी समाधि, स्मृति और सहनशीलता को नहीं छोड़ा और काया को वोसरा कर समाधिस्थ रहे । निम्न उद्धरण महावीर के ध्यान को पूर्णतः उजागर करता है :
अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं उड्ढअहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिपडिण्णे ।
आचारांग सूत्र अध्याय 9 उद्देश्या 4 गाथा 67 अर्थः- वे महावीर उत्कृष्ट आसनों में स्थित हो अविरत स्थिर ध्यान करते थे । (शरीर में ही) उर्ध्व, अधो, और तिर्यग देखते हुए समाधिस्थ और अप्रतिज्ञ
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