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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
2. अशरण भावना :
संसारासक्त व्यक्ति यह सोचता हुआ अपने को निरापद मानता है कि ऐसे बहत से बड़े-बड़े मेरे हितैषी हैं जो मुझे किसी भी संकट में शरण दे सकते हैं, सहारा दे सकते हैं, मुझे उससे बचा सकते हैं। अतएव मृत्यु जैसे अटल सत्य में भी उसकी आस्था नहीं रहती। ऐसा होने से उसकी संसारासक्ति बढ़ती जाती है। ऐसे प्राणी का मन ध्यान में कैसे एकाग्र हो सकता है। यह तो वह उन्माद है जो प्राणी को वास्तविकता से सदा दूर रखता है। आचार्य हेमचन्द्र ने व्यक्ति को इस उन्माद से छुड़ाने के लिए अशरण भावना का विशेष रूप से निरूपण किया है।
उन्होंने लिखा है कि देवाधिदेव इन्द्र तथा उपेन्द्र-वासुदेव चक्रवर्ती आदि भी मृत्यु से बच नहीं सकते। वे भी उसके वशीभूत होते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य प्राणियों के लिए तो कहना ही क्या ! कोई भी मृत्यु से उनकी रक्षा कर पाने में समर्थ नहीं होते। जब मौत का आगमन होता है तो माता-पिता, बहन-भाई आदि समस्त परिवारजन के देखते-देखते प्राणी यमराज के वशवर्ती हो जाते हैं और अपने संचित कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न गतियों में पहुँच जाते हैं। कितना बड़ा आश्चर्य है कि अज्ञ पुरुष अपने-अपने कर्मों के अनुसार मृत्यु को प्राप्त होने वाले पारिवारिक जनों को जब देखता है तो शोक करता है। किन्तु वह यह कदापि नहीं सोचता कि एक दिन मृत्यु उसे भी अपने क्रोड़ में ले लेगी। ..
यह संसार दःख रूपी दावाग्नि की ज्वालाओं से जलता हआ बड़ा ही करालरूप लिये हुए है। जिस प्रकार दावाग्नि से जलते वन में मृग के बच्चे के लिए कोई शरण स्थान नहीं है, उसी प्रकार संसार में भी मृत्यु से त्राण पाने का कोई आश्रयस्थल नहीं है।14
जब व्यक्ति मन में यह निश्चित कर लेता है कि विविध भोगोपाभोग, वैभव एवं ऐश्वर्य युक्त जीवन स्थिर नहीं है, मृत्यु ही उसका चरम पर्यवसान है तो दैहिक सुखोपभोग के विविध स्वप्नों से वह अपने आप को बचा सकता है। वैसा होने पर उसका चित्त वैभाविक परिस्थितियों से उन्मुक्त होकर आत्मस्वभावानुगत दिशा की ओर गतिशील होता है। तभी उसमें ध्यानापेक्षित एकाग्रता का समावेश होने लगता है। 14. वही, 4.61-64 ~~~~~~~~~~~~~~~ 10 ~~~~~~~~~~~~~~~
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