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________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श शताब्दी) विरचित योगसार (गा. 98 ) में भी किया गया है। इससे पूर्व के अन्य किसी ग्रन्थ में यह देखने में नहीं आया । पद्मसिंह मुनि विरचित ज्ञानसार (वि. 1086 ) में अरहन्त की प्रधानता से पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ इन तीन की प्ररूपणा की गई है। 120 वहाँ रूपातीत का निर्देश नहीं किया गया है। पिंडस्थ आदि चार वर्गीकरण पर तंत्रशास्त्र का प्रभाव प्रतीत होता है। नवचक्रेश्वरतंत्र में पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत को जानने वाले को गुरु कहा गया है पिंडं पदं तथा रूपं रूपातीतं चतुष्टयम् । यो वा सम्यग् विजानाति स गुरुः परिकीर्तितः ॥ गुरुगीता में पिण्ड का अर्थ कुण्डलिनी शक्ति, पद का अर्थ हंस, रूप का अर्थ बिन्दु और रूपातीत का अर्थ निरंजन किया गया है। - पिण्डं कुंडलिनी शक्तिः पदं हंसः प्रकीर्तितः । रूपं बिंदुरीति ज्ञेयं, रूपातीतं निरंजनम् ॥ 120. ऐसा लगता है कि जैन आचार्यों ने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत इस वर्गीकरण को स्वीकार किया किन्तु उनके अर्थ अपनी परिभाषा के अनुसार किये । चैत्यवंदन भाष्य में पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत ये तीन ही प्रकार मान्य किये गये हैं भावेज अवत्थतियं पिंडस्थ पयत्थ रूवरहियत्तं । छदुमत्थ केवलित्तं सिद्धत्थं चेव तस्सत्थो । इनका अर्थ भी शेष ग्रन्थों से भिन्न है। भाष्यकार के अनुसार छद्मस्थ ( आवृतज्ञानी), केवली (अनावृत ज्ञानी) और सिद्ध ये तीन ध्येय हैं । एतद् विषयक ध्यान को क्रमश: पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत कहा जाता है । उस समय ध्यान के इन प्रकारों से जन-मानस बहुत परिचित हो गया था इसलिए जैन आचार्यों के लिए भी इनका स्वीकार आवश्यक हो गया होगा, ऐसा प्रतीत होता है। आचार्य शुभचन्द्र ने भी अपने 'ज्ञानार्णव' में धर्मध्यान के अन्तर्गत पिंडस्थ खण्ड : षष्ठ JANAN ज्ञानसार 18 Jain Education International 62 APP For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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