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________________ जितनी गहराई से निमग्न होते हैं, डुबकियाँ लगाते हैं वे उतना ही अधिक ज्ञानरूपी आत्मा को प्राप्त करते जाते हैं। उनकी दिव्य आभा से जीवन उद्योतित होता है। हम ससीम शक्ति युक्त प्राणी हैं, इसलिए इस ज्ञान रूपी सागर की थाह पाना तो दु:शक्य है ही पर जितना कुछ सतत प्रयत्न द्वारा जागरूकता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है, वह तो व्यक्ति के अपने वश की बात है। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा यह एक छोटा सा प्रयत्न है। इस शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ मेरे जीवन की वे अनुभूतियाँ भी जुड़ी हैं जो अध्ययन काल में स्पन्दित होती रही हैं। श्रामण्य जीवन की संवाहिका होने के नाते मैं अपने अध्ययन एवं शोधमूलक उपक्रम को साधना का ही एक अंग मानती हूँ। इसके द्वारा संस्फूर्त उत्साह मेरी संयम साधना में मेरा सम्बल बनेगा जिससे मेरी गति सर्वदा अव्याहत रहेगी। अत: मेरे लिए तो यह श्रेयस्कर है ही, मुझे आशा है जो जिज्ञासु मुमुक्षु भाई बहन इसका अध्ययन करेंगे उन्हें इससे ध्यान साधना की प्रेरणा प्राप्त होगी जो हमारी संस्कृति की एक अमूल्य निधि है। जैन धर्म में ध्यान साधना की चाहे कोई भी विधि क्यों न हो लक्ष्य एक ही है कि व्यक्ति विभाव से स्वभाव की दिशा में प्रगति करे साक्षीभाव और सजगता से जीना सीखे। यदि यह कृति कुछ लोगों को भी इस दिशा में प्रेरित कर सके तो मैं अपना प्रयत्न सार्थक मानूंगी। * आर्या डॉ. उदितप्रभा 'उषा' एम.ए., पी.एच.डी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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