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आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
खण्डः- पंचम
आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
खण्ड : पंचम
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आचार्य हरिभद्रसूरि जैन जगत् के महान् क्रान्तिकारी महापुरुष हुए हैं जिन्होंने जैन साधना, धर्म, दर्शन एवं संस्कृति के विकास में अद्भुत कार्य किया। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था । वे चित्रकूट, चितउर चित्तौड़ के राजपुरोहित थे । वेद, वेदांग, व्याकरण, न्याय आदि विभिन्न विषयों के पारगामी विद्वान् थे । विशेष प्रसंगवश वे याकिनीमहत्तरा नामक जैन साध्वी से प्रेरित और प्रभावित होकर जैनधर्म की ओर उन्मुख हुए। बड़े ही निर्मल तटस्थ विचारों के धनी थे। उन्होंने जैनधर्म का मुनिजीवन स्वीकार किया और जैनशास्त्रों का गहन अध्ययन किया । अपने समय में जैन साधुओं में व्याप्त शिथिलाचार का उन्होंने घोर विरोध किया । उनका सम्बोध प्रकरण नामक ग्रन्थ इसका साक्ष्य है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैन आगमों पर टीकाएँ, अनेकान्तवाद, योगसाधना एवं आचार पर स्वतन्त्र ग्रन्थ, प्राकृत तथा संस्कृत में कथा - साहित्य इत्यादि विभिन्न विधाओं में विपुल साहित्य की रचना की । उन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्धग्रन्थ ' न्यायबिन्दु' पर भी संस्कृत में टीका की जो बहुत महत्त्वपूर्ण है । इन सब के अतिरिक्त उनकी सबसे बड़ी देन जैनयोग को एक स्वतन्त्र विद्या के रूप में प्रतिष्ठापना है। उन्होंने देखा कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में योग के माध्यम से विविध साधनोपक्रम गतिशील हैं। उन्होंने जैन आगम एवं दर्शनसम्मत साधनामूलक तत्त्वों को जैनयोग के रूप में बड़ी ही युक्तिपूर्ण पद्धति से प्रस्तुत किया। उन्होंने जैनयोग पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना की ।
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उनके 'योगदृष्टिसमुच्चय' और 'योगबिन्दु' नामक दो ग्रन्थ संस्कृत में हैं तथा ‘योगशतक’, ‘योगविंशिका' नामक दो ग्रन्थ प्राकृत में हैं। उन्होंने 'धर्मबिन्दु',
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