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ध्यान अमृत-बिन्दु
1. बाह्य कोलाहल से दूर, आत्मिक शान्ति एवं चिर
आनन्द की अनुभूति ध्यान साधना से ही संभव हो सकती है। एक पल के लिये लगता है, झंझावात शान्त हो गया है। साधना का उत्तरोत्तर विकास क्रम वस्तुतः सृजनात्मकता के शिखर की यात्रा है।
युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा.
"मधुकर' डायरी से संकलित 2. ध्यान का प्रयोग करना एक प्रवृत्ति है, किन्तु प्रयोजन उससे भिन्न है और वह है जागरूकता का विकास।जीवन के प्रति, वर्तमान समस्याओं के प्रति जागरूकता आए। जो सोया हुआ जीवन है, मूर्छा का जीवन है, प्रमाद और आलस्य का जीवन है वह टूटे और व्यक्ति सतत जागरूक बन जावे।
आचार्य महाप्रज्ञ 'finding your spiritual center' से उद्धृत 3. ध्यान द्वारा आत्मिक ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी किया जा
सकता है। ध्यान साधना में लीन प्राणी विकारों का विरेचन करते हए आलोक से संप्रक्त हो जाता है। मन शान्त-स्थिर और शीतल हो जाता है। प्राणी जब गहनतम केन्द्र पर समाधिस्थ हो जाता है तो आंधी के बाद जल वृष्टि होने पर हरीतिमा की अनुभूति करता है।
आर्या उमराव कुंवर 'अर्चना' 4. ध्यान मन का उदघाटन और उसी के द्वारा प्रत्यक्षीकरण है। वह एक निर्बाध अवलोकन है, एक ऐसा अवलोकन जिसमें कोई पृष्ठभूमि नहीं होती जिसमें एक अनन्त शून्यता होती है, जिसमें अवलोकन होता है। विचार काल है और ऐसे अवलोकन के लिएजो विचार की सीमा के परे आता है, एक ऐसे मन की आवश्यकता होती है जो अनुपम रूप से शान्त है, मौन है।
जे. कृष्णमूर्ति 'शिक्षा संवाद छात्रों और शिक्षकों से उद्धृत
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