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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ कहलाती है। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय में शुक्लध्यान माना जाता है, उनमें धर्मध्यान नहीं होता। दोनों मानना उचित नहीं है। क्योंकि आगम में श्रेणियों में शुक्लध्यान ही बताया है धर्मध्यान नहीं। शुक्लध्यान : मन सहज ही चंचल है। विषयों का आलंबन पाकर उसकी चंचलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल और भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटाकर किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शांत और निष्प्रकम्प होता जाता है। शुक्लध्यान के अंतिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध होकर पूर्ण संवर हो जाता है अर्थात् समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में शुक्लध्यान के चार भेद बताये हैं,21 जो इसके चार पाये कहलाते हैं : (1) पृथक्त्ववितर्कसविचार (2) एकत्ववितर्क निर्विचार (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती (4) व्युपरत क्रिया निवृत्ति। पृथक्त्ववितर्क विचार : ___पूर्वगत श्रुत का अवलम्बन लेकर तथा किसी एक द्रव्य को ध्यान का विषय बनाकर उसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप भंगों को तथा मूर्त्तत्व-अमूर्त्तत्व पर्यायों पर अनेक नयों की अपेक्षा भेदप्रधान चिन्तन करता हुआ एक पर्याय से दूसरी पर्याय पर, एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, मनोयोग से वचनयोग पर, वचनयोग से मनोयोग अथवा काययोग पर, इस प्रकार चित्तवृत्ति का परिवर्तन पलटना, बदलना आदि रूप ध्यान प्रथम शुक्लध्यान है। एक पर्याय से दूसरी पर्याय पर चित्तवृत्ति का गमन अर्थसंक्रान्ति है। श्रुत के किसी भी एक शब्द से दूसरे शब्द पर चित्तवृत्ति का परिवर्तन व्यंजन-संक्रांति है। मनवचन-काय के योगों पर परस्पर एक दूसरे- तीसरे पर चित्त की वृत्ति का गमन अथवा 21. वही, 9.41 ~~~~~~~~~~~~ ~ 18 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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