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खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्यानयोग का यह क्रम अभग्न और अव्याहत रूप में चलता जाता है तो अन्तत: आठों कर्म क्षीण हो जाते हैं।
आत्मा के परम शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हुए ग्रंथकार ने लिखा है - जिसको लोक में इन्द्र आदि भी नमन करते हैं, ध्यानयोग्य तथा स्तुति करने योग्य तीर्थंकर आदि भी जिसका ध्यान करते हैं, स्तुति करते हैं उस विशुद्धदेहस्थ आत्मा को क्यों नहीं जानते, उसके महत्त्व को क्यों नहीं समझते, वही तो नमन करने योग्य, ध्यान करने योग्य व स्तवन करने योग्य है।65
इस गाथा में ग्रंथकार ने ध्यान के परम शुद्ध ध्येय-परमात्म स्वरूप को इंगित किया है, जो किसी भी प्रकार के बाह्य आलम्बन से भिन्न है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा :
___ कार्तिकेयानुप्रेक्षा शौरसेनी प्राकृत में रचित (लगभग छठी शती) अनुप्रेक्षा या भावना विषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यहाँ ध्यान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि किसी एक वस्तु में चिन्तन का निरोध ध्यान कहा जाता है। वह अन्तर्मुहूर्त तक होता है और शुभ और अशुभ के रूप में दो प्रकार का है। उनमें प्रथम आर्तध्यान कषाय और दूसरा रौद्रध्यान अति तीव्र कषाय से होता है। ये अशुभ ध्यान हैं। धर्म तथा शुक्ल शुभ और शुभतर ध्यान हैं। आगे ग्रन्थकार ने इन ध्यानों का विस्तार से विवेचन किया है।
धर्मध्यान की चर्चा करते हुए लिखा है-धर्म वस्तु का स्वभाव है। वह क्षमा आदि के रूप में दस प्रकार का है, रत्नत्रय धर्म है, जीवों की रक्षा करना धर्म है। जो ऐसे धर्म पर अपने मन को एकाग्र करता है तथा पाँच प्रकार के इन्द्रिय-विषय का वेदन नहीं करता, वैराग्ययुक्त होता है वैसे ज्ञानी के धर्मध्यान सधता है। जो आत्मबली, संयमी साधक राग-द्वेष को जीतकर विशुद्धता प्राप्त कर चुका हो, बाह्य संकल्पों से मानसिक एकाग्रता साध चुका हो, उसका चिन्तन शुभध्यानमय है।67
65. वही, गा. 102-103 पृ. 336-337 66. कार्तिकेयानुप्रेक्षा 470-71-72 67. वही, 478-79-80
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