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________________ शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग खण्ड : तृतीय शब्दों में मन-वचन, एवं काय के सम्बन्ध में उपेक्षाभाव है उसके शुभ और अशुभ कर्मों को दग्ध करने वाली ध्यानमय अग्नि प्रकट होती हैं।37 उनके अनुसार आत्मभाव में अर्थात् स्वभाव में अवस्थित संयमी साधक अन्य द्रव्यों के संयोग से रहित शुद्धात्मा का ध्यान ध्याता है, उसका वह ध्यान कर्मनिर्जरण का हेतु बनता है।38 आचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान के प्रसंग में जो विवेचन किया है वह निश्चयनय और विशुद्ध आत्म - भावानुगामी के दृष्टिकोण से सम्बद्ध है। अतएव उन्होंने बाह्य उपचारों को अपने विवेचन में स्थान नहीं दिया है। इससे ध्यान की उच्च भूमिका प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है। यद्यपि उस उच्च भूमिका की सिद्धि सुगम तो नहीं है, बड़ी दुर्गम है, किन्तु साधक के मन में प्रेरणाजनित स्फूर्ति जागृत रहे तो उसके पुरुषार्थ को सम्बल प्राप्त होता है। समयसार : आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' में संवर के विवेचन के अन्तर्गत ध्यान का वर्णन करते हुए लिखा है कि जो साधक सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होकर अपनी आत्मा का आत्मा से ध्यान करता है वह कर्म तथा नोकर्म का चिन्तन नहीं करता, ऐसा चिन्तन करने वाला आत्मा के एकत्व का चिन्तन करता है। इस प्रकार आत्मा का ध्यान करता हुआ दर्शन और ज्ञानमय हो कर किसी से न जुड़ता हुआ वह स्वल्पकाल में ही कर्मों से प्रविमुक्त हो जाता है और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है।39 नियमसार : आचार्य कुन्दकुन्द ने 'नियमसार' में प्रतिक्रमण के वर्णन के संदर्भ में ध्यान की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है कि आर्त और रौद्र ध्यान का परित्याग कर धर्म तथा शुक्ल ध्यान का अभ्यास करता है वह आत्मा प्रतिक्रमण स्वरूप है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा निरूपित सूत्रों, सिद्धान्तों में निरूपित हुआ है।40 37.पंचास्तिकाय गा. 146 पृ. 210 38. वही, गा. 152 पृ. 219 39. समयसार गा. 188-189 पृ. 310 40. नियमसार गा. 89 पृ. 168 ~~~~~~~~~~~~~~~ 14 ~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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