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प्राक्कथन
-डॉ. सागरमल जैन भारतीय संस्कृति में ध्यान और योग की परम्परा का अस्तित्व प्राक्ऐतिहासिक काल से ही उपलब्ध होता है । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से उपलब्ध सीलों में ध्यानस्थ योगियों के अंकन इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में ध्यान एवं योग की जड़ें अतिगहन है। यह एक निर्विवाद तत्त्व है कि औपनिषदिक परम्परा और सहवृर्ती श्रमण परम्पराओं में ध्यान साधना उनकी दैनिक-चर्या का आवश्यक अंग होती थी। महावीर और बुद्ध के पूर्व भी ध्यान साधना की अनेक विधियाँ प्रचलित थी। इस प्रकार ध्यान-साधना पद्धति भारतीय साधना-पद्धति का प्रमुख अंग रही है। जैसा कि हमने प्रारम्भ में उल्लेख किया । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के काल से लेकर वर्तमान युग तक ध्यान साधना के पुरातात्विक और साहित्यिक उल्लेख प्राप्त होते हैं । यद्यपि ध्यान साधना की विविध विधियों को लेकर आज तक बहुत लिखा गया है और लिखा जा रहा है तथा वर्तमान तनाव के युग में ध्यान साधना की अनेक पद्धतियाँ विभिन्न धर्मों की शाखाओं और प्रशाखाओं में आज भी प्रायोगिक रूप से प्रचलित है और उनके सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन भी हुआ है। किन्तु प्राक-ऐतिहासिक काल से लेकर आज तक ध्यानों की कौनकौन सी विशिष्ट परम्पराएँ रही है और ध्यान साधना के क्षेत्र में उनकी अपनी मौलिकता क्या है? इस पर कोई भी शोध कार्य नहीं हुआ है। इसी दृष्टि को लेकर साध्वी श्री उदितप्रभाजी ने "जैन धर्म में ध्यान की परम्परा, महावीर से लेकर महाप्रज्ञ तक" इस विषय पर अपना शोध प्रबन्ध मेरे निर्देशन में लिखा है, जो जैन धर्म में ध्यान की परम्परा के इतिहास को जानने का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना जा सकता है।
आज जो ध्यान की विविध परम्पराएं प्रचलित हैं, उनको मूलत: दो भागों में बाँटा जा सकता है-(1) पातंजल योगसूत्र पर आधारित ध्यान और योग की परम्पराएँ और (2) रामपुत्र की श्रमण-धारा से विकसित ध्यान और योग की परम्पराएँ। फिर भी पातंजल योगसूत्र और रामपुत्र की विपश्यना की ध्यान पद्धति का मूल लक्ष्य तो मन की भाग-दौड़ या विकल्पात्मक प्रवृत्तियों को समाप्त करना ही रहा है। चाहे योगः चित्तवृत्ति निरोधः की परिभाषा को ले या चित्त समाधि या मन
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