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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान - खण्ड : द्वितीय अपायविचय - अपाय का अर्थ पतन, संकट या विघ्न है। अथवा संसारी जीव के रूप में उत्पन्न होना आत्मा के लिए पतन रूप है। उसके कारणों पर, उससे बचने के उपायों पर चिन्तन में अपने को संलग्न करना अपायविचय है। जैनदर्शन कर्मवादी दर्शन है। मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों द्वारा कर्म-पुद्गलों का बन्ध होता है। उनकी स्थिति के अनुसार उनका विपाक या परिपाक होता है, वे फल देते हैं। इस विषय पर अपने मन को संलीन करना विपाकविचय है। जैन दर्शन के अनुसार यह लोक पुरुषाकार है। यही अपने - अपने कर्मों के अनुसार जीवों के जन्म-मरण का आधार है। लोक के स्वरूप के चिन्तन में मन को समायोजित करना संस्थानविचय है। इन चारों ही ध्यानों में जीव अपने अन्त:स्वरूप की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इन चारों के भिन्न-भिन्न विषय ऐसे हैं जो आत्मा के साथ सीधे जुड़े हुए हैं। सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की वाणी सर्वथा तथ्य, सत्य और विसंवादरहित है। इस पर चिन्तन करते रहने से मन में उसके प्रति सघन श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है जिससे आत्मा में उज्ज्व लता आती है। संसार में पतन के कारणों से अपने आप को दूर रखने के चिन्तन में एकाग्र होने से सहज ही मन में यह प्रेरणा जागती है कि वह ऐसे अशुभ-असत्- अपवित्र कार्य न करे, जिनसे उसे भवचक्र में भ्रमण करना पड़े। ___ कर्मों के विपाक पर चिन्तन से ही साधक के मन में यह अन्तर्भाव जागृत होता है कि उसे कर्म करते समय अत्यन्त जागरूक रहना चाहिए। ऐसे कर्म कभी न करें जिनके परिणाम-स्वरूप जीव को अनेक संकट-कष्ट झेलने पड़ें। जब साधक लोक के विराट् स्वरूप के चिन्तन में अपने को नियोजित करता है तो उसे सहज ही यह भान होने लगता है कि इस लोक में उसका अस्तित्व कितनासा है। वह किस बात का गर्व करे, वह तो इसके अतीव छोटे-से-छोटे भाग पर अवस्थित है। उसका अहंकार दूर होने लगता है। उसे अपना अस्तित्व-बोध प्राप्त होता है। धर्मध्यान के चार लक्षण : (1) आज्ञारुचि (2) निसर्गरुचि (3) सूत्ररुचि (4) अवगाढ़रुचि। जिस प्रकार आर्त और रौद्रध्यान के लक्षण निरूपित हुए हैं जिनसे उनकी पहचान होती है, उसी तरह धर्मध्यान की पहचान के लिए ये चार लक्षण प्रतिपादित हुए हैं। ~~~~~~~~~~~~~~~ 18 ~~~~~~~~~~~~~~~ vocatalotrwadmaRITE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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