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________________ मुनियोंने कहा कि हम गुजरात देश से आए हैं. हमारे गुरुका नाम शोभनमुनि है, जो आचार्य महेन्द्रसूरि के शिष्य हैं और हम इधर श्रीआदिनाथभगवानके मंदिरके पासके निर्दोष स्थानमें ठहरे हुए हैं. भिक्षा लेकर जब मुनि चले गए तब धनपाल भी अपने नित्य कर्मसे निवृत्त होकर भोजन कर बड़ी श्रद्धाके साथ भक्ति नम्र बन कर उन मुनियों के उपाश्रय में जाने को उद्यत हुआ. जब धनपाल महाकवि उपाश्रयमें पहुंचा तब अपने बडे बंधुको आते हुए देखकर शोभनमुनि उसके आदर के लिए खड़े हो गए, शोभन मुनिने अपने आसन के आधे भागमें अपने बड़े भाई को बडे स्नेहसे बैठाया. अब दोनों भाई एक दूसरेको देखकर प्रेमगद्गद हो गए. धनपालने कहा कि पूज्य तो तुमही हो, तुमने ही उत्तम ऐसे दयाप्रधान धर्मका स्वीकार किया है और इस धर्मका पालन भी बड़ी सावधानीसे संयमपूर्वक कर रहे हो. ऐसे दयाधर्मी मुनियों को धारानगरीसे निर्वासित करके मैंने बड़ा पापपुंज उपार्जित किया है. तुमने ऐसे अहिंसाप्रधान धर्मका स्वीकार करके अपने जीवन को सफल बनाया है । तुम धन्य हो और पिताजी सर्वदेव भी धन्य हैं. मैं हिंसाप्रधान यज्ञयागादिको धर्मके रूपमें समझ कर उसीके कर्मकांड में आजतक फंस गया. परंतु अब मैं सच्चे अहिंसारूप धर्म को समझ सका हूं. तुम्हारे ये मुनि मेरे घर पर आज भिक्षा लेनेके लिए आए थे, मेरे मनमें जैनमुनियों के प्रति आदर नहीं था तो भी घर पर जो याचक आता है वह भिक्षा पाए बिना चला जाय यह मुझको बड़ा अनुचित लगता है, अतः मैंने गृहिणी को भिक्षा देनेको कहा. .. मेरी तरह उसको भी आदर नहीं था अतः वह ठंडा अन्न लाई और दहीं भी लाई. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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