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नामरूपों के स्थानमें कालिदास वा बाणभट्ट जिन रूपोंका प्रयोग करते हैं वे अनुक्रमसे इस प्रकार हैं:१ हन्ति १० करोति
१८ वयम् २ शेते
११ जि (धातु) १९ त्रयाणाम् ३ भिनत्ति
१२ अमथ्नात् २० नावा ४ म्रियते
१३ दुहन्ति २१ देवैः ५ ददाति
१४ कर्तुम् ६ दधाति
२२ इतरत् ७ भुङ्क्ते १५ पत्या
२३ औषधीभिः ८ वर्धयन्तु
१६ गवाम् २४ मांसम् ९ वर्तते १७ यूयम्
२५ सः चित् महावैयाकरण श्री पाणिनि तथा अन्य पतंजलि महाभाष्यकार, कालिदास बाण वगैरह पंडितगण इन शब्दप्रयोगों को लौकिक प्रयोगरूप वा संस्कृतरूप कहते हैं.
इधर जो वैदिकरूप, प्राकृतरूप तथा संस्कृतरूप दिए गए हैं वे परस्पर अत्यधिक समान हैं, भेद है तो थोडा बहुत उच्चारण की शैलीका भेद है, इस प्रकार थोडा बहुत शैली भेद से इन रूपोंको लौकिक वा संस्कृत कहना तथा वैदिक व प्राकृत रूपों को अलौकिक वा असंस्कृत कहना क्या ठीक प्रतीत होता है ? इस प्रकार भेद करनेसे मानवके चित्तमें भाषाविषयक एकता के स्थान में भेद आता है और वह भेद बढ़ते बढते विषमता का रूप लेता है और वर्तमान में इस भेदका नतीजा यह हुआ है कि एक समाज अमुक भाषा को देवभाषा व उत्तम भाषा समझता है और अन्य भाषाको अनुत्तम भाषा समझता है- नीच भाषा समझता है- परिणाम यह हुआ है कि हमारे वर्तमान पंडित लोग अपने ग्रामीण बंधुओं की भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ होनेसे उनसे एकदम विच्छिन्न हो गए हैं और उनको अज्ञानी समझने तक लग गए हैं- यह दोष, कोई कम अनर्थ नहीं माना जा सकता
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