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अलंकारदप्पण
५३ किं नु रूपेण हला रूपस्य श्रामणिकेन सत्त्वेन ।
अश्रूत्सवधृताः तस्य च पादेषु पतिताः ।।१२७।।
हे सखी! रूप से क्या होता है? रूप के सम्बन्धी श्रमणोचित सात्त्विक गुण द्वारा ग्रहण की गई स्त्रियाँ आँसू बहाती हुई उसके पैरों पर गिरती हैं।
यहाँ पर 'किम्' पद द्वारा रूप की हेयता और सात्त्विकगुण की उपादेयता का श्रेष्ठ कथन करने के कारण वलितालंकार है ।
आई-मज्झन्त-गअंपाअ (ब) भासो तहावलि-णिबंधो । णीसेस-पाअ-रइअं जाइ जमअं अ पंच-विहं ।।१२८।। आदि मध्यान्तगतं पादाभासं तथावलिनिबन्धम् । निश्शेषपादरचितं याति यमकं पञ्चविधम् ।।१२८।।
आदि, मध्य, अन्त पादगत पादाभ्यासगत, आवलिगत तथा सभी चारों पादों में विरचित यमक अलंकार पाँच प्रकार का होता है ।
आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श के तृतीय परिच्छेद में यमकालंकार का भेदोपभेद सहित विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने यमक का यह लक्षण दिया है -
अव्यपेतव्यपेतात्मा . या वृत्तिवर्णसंहतेः । यमकं तच्च पादानामादिमध्यान्तगोचरम् ।। काव्यादर्श ३/१।।
अलंकारदप्पणकार ने भी पादादि, पादमध्य, पादान्तगोचर यमक को स्वीकार किया है । दण्डी ने यमक को ग्रन्थ के अन्तिम परिच्छेद में बताया है। द्वितीय परिच्छेद में बताने का कारण देते हए वे कहते हैं -
आवृत्तिमेव संघातगोचरां यमकं विदुः ।
तत्तु नैकान्तमधुरमतः पश्चाद्विधास्यते ।। काव्यादर्श २/६१
अलंकारदप्पण का यमक लक्षण तथा भेदविवेचन आचार्य भामह के लक्षण एवं भेदों से पूर्ण साम्य रखता है। भामह ने यमकालंकार के भेदों को इस रूप में बताया है
आदिमध्यान्तयमकं पादाभ्यासं तथावली ।
समस्तपादयमकमित्येतत्पञ्चधोच्यते ॥काव्यालंकार २/९।। पाआइ जम जहा (पादादि यमकं यथा)
मा णं माणं हारेहिं णिअ-दइए अह सालूरी । गअणाहगेअ (अं) साणासा सासाउरा रमिअं ।।१२९।। मा ननु मानं हारयत निद्रायितमर्द्धशार्वरी । निद्रापूर्णित नासाधासा सातुरा रमितम् ।।१२९।।
१. णं नन्वर्थे ८/४/२८३ शौरसेन्यां नन्वर्थे णमिति निपात: प्रयोक्तव्या- शब्दानुशासन
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