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सम्पादकीय
'अलंकारदप्पण' लगभग दसवीं शती की लिखी हुई कृति है। जिसके रचयिता के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है। प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह रचना जैसलमेर भण्डार से प्राप्त (नं० ३२६) एक मात्र ताडपत्रीय प्रति के आधार पर सर्वप्रथम श्री भंवरलाल नाहटा ने हिन्दी अनुवाद सहित मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९६८ में प्रकाशित किया था। उसी का अनुवाद प्रो० सुरेशचन्द्र पाण्डे ने टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत संस्करण में प्रस्तुत किया है ।
अलंकारदप्पण के रचयिता को “सुईदेवियं च कव्वं च पणविअ पवरवण्णटुं" (गाथा १) में प्रयुक्त श्रुतिदेवी शब्द के आधार पर यह सिद्ध करना उचित नहीं लगता कि श्रुति शब्द का प्रयोग चूँकि वैदिक संस्कृति में ही होता है इसलिए लेखक को वैदिक परम्परा का होना चाहिए।
सुइदेवि (श्रुतिदेवी) का सम्बन्ध श्रुतागम से है और श्रुत से ही श्रुति बना है। जैन ग्रन्थों में 'सुई' शब्द शुचि और श्रुति (आगम) दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अभिधानराजेन्द्र कोष में इसका स्पष्ट उल्लेख है। 'सुई हियकरि' जैसे अनेक उल्लेख आवश्यक (४.२४) आदि अगमों में आते ही हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि का धम्मस्स श्रवणं श्रुतिः श्रूयते वा (पृ० ९८) उल्लेख भी इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है। जैन शिल्प में सरस्वती की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति कुषाण काल (१३२ ई०) की है जो राज्य संग्रहालय, लखनऊ में संग्रहीत है। इसका लाक्षणिक स्वरूप आठवीं शती के बाद ही विकसित हुआ है। अतः यहाँ 'सइदेवि' का सम्बन्ध जैन श्रृतदेवी या अतिदेवी से ही होना चाहिए और अलंकारदप्पण का रचयिता भी जैन होना चाहिए। उसमें आये विष्णु के उल्लेख से इस अनुमान पर कोई असर नहीं पड़ता।
प्राकृत भाषा में निबद्ध अलंकारशास्त्र का यह प्रथम ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है, यद्यपि इस पर भामह और दण्डी का प्रभाव अधिक दिखाई देता है फिर भी अलंकारों के स्वरूप, संख्या, भेद-प्रभेद आदि के विषय में रचयिता ने अच्छा चिन्तन प्रस्तुत किया है जिसे हम संक्षेप में इस प्रकार अंकित कर सकते हैं।
__ अलंकार शोभावर्धक तत्त्व हैं, काव्य रूप शरीर को अलंकृत करने वाले साधक हैं। शब्द और अर्थ के माध्यम से काव्य को वे इतना आकर्षक बना देते हैं कि पाठक हतप्रभ-सा हो जाता है। शायद इसीलिए काव्यशास्त्र को अलंकारशास्त्र कहा गया है। रस उसकी आत्मा है, गुण अलंकार, रीति बाह्य शोभाधारक धर्म हैं तथा शब्द और अर्थ उसके
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