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________________ ३३ अलंकारदप्पण यस्य भणितिभिः अन्यान्याभिः अन्यःप्रकटितः यतः यस्मिन्नर्थः । अन्यापदेशनामा स सिद्धोऽर्थकारैः ।।८।। जिन अन्यविषयक उक्तियों द्वारा अन्य ही अर्थ जहाँ पर प्रकट होता है उसे अर्थकारों ने 'अन्यापदेश' नामक अलंकार कहा है । आचार्य मम्मट के अनुसार यह अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार का पाँचवां भेद है जहाँ पर तुल्य अप्रस्तुत के अभिधान द्वारा तुल्य प्रस्तुत व्यङ्ग्य होता है । इसको आचार्य हेमचन्द्र ने अन्योक्ति अलंकार कहा है । ग्रन्थकार ने इस अलंकार का उदाहरण ८२वीं कारिका में दिया है। इसके पूर्व ८१वीं कारिका में आतुर अलंकार का उदाहरण दिया है। इस क्रमभङ्ग का क्या कारण है कहा नहीं जा सकता। आतुर अलंकारो जहा (आतुरालंकारो यथा) हा हा विहूअ कर-अलाल हिअं सुअंडहूँ । पडिआ गोलातुरेण सरसेण मिसेण हलिअसोण्हा ।।८१।। हा हा विधूतकरतला लब्धं शुकं दग्धम् । पतिता गोलातुरेण सदृशेन मिषेण हलिकस्नुषा ।।८१।। हा ! जब कृषक की पुत्रवधू ने तोते को जला हुआ पाया तो (व्याकुलता से) करतलों को हिलाती हुई, नदी के वेग के सदृश किसी बहाने पर (जमीन पर) गिर पड़ी। वस्तुत: यह गाथा पूर्वोक्त भावालंकार का उदाहरण है न कि आतुरालंकार का, क्योंकि ग्रन्थकार ने प्रारम्भ में अलंकारों की नामावलि में आतुर नामक कोई अलंकार नहीं बताया है । सम्भवत: इस श्लोक में आतुर शब्द के रहने से प्रतिलिपिकर्ता ने इसे आतुर अलंकार का उदाहरण जानकर इसके पूर्व 'आतुरालंकारो जहा' लिख दिया हो । अण्णावएसो जहा (अन्यापदेशो यथा) अण्णे सम्बन्ध भोइणि णव-वच्छ-असेण्णअं बइलस्स। ... आलोअ-वत्त (मेत्त)-सुहवो ण कज्ज-करण-क्खमो एसो ।। ८२।। अन्यस्मिन् सम्बन्धभोगिनि नववत्सोऽसेचन को बलीवर्दस्य । आलोकमात्रसुभगोन कार्यकरणक्षम एषः ।। ८२।। हे अन्य (किशोर) के साथ सम्बन्ध का उपभोग करने वाली ! नया बछड़ा बैल की तरह मनोहर है किन्तु देखने मात्र से सुन्दर है कार्य करने में (हल चलाने में) समर्थ नहीं है। नायिका की अल्पवयस्क सुन्दर किशोर के प्रति आसक्ति को देखकर उसकी सखी वछड़े के वृत्तान्त को बताकर उसे विमुख करना चाहती है। यहाँ पर वाच्यार्थ अप्रस्तुत है और उसके द्वारा प्रस्तुत अर्थ व्यङ्ग्य हो रहा है। इसीको अन्योक्ति भी कहा जाता है। - - १. तदसेचनकं तृप्तिस्त्यिन्तो यस्य दर्शनात्' अमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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