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________________ २१. अलंकारदप्पण दुःख को उनसे बताने के लिये आग्रह कर रही हैं जिससे उसकी वेदना कम हो सके । । उक्त उदाहरण में 'मुहि मुह' 'तणुआ तणुओ' में वर्णसाम्य के कारण पदानुप्रास अलंकार है । अन्य आलंकारिकों के अनुसार यह छेकानुप्रास है । वण्णाणुप्पासो जहा (वर्णानुप्रासो यथा) वाअंति सजल-जलहर-जल-लव-संवलण-सीअअल-प्फंसा । फुल्लं धुअ-धुअ कुसुमच्छलत-गंधुद्धरा-पवणा ।।५३।। वान्ति सजलजलधर जललवसंवलनशीतलस्पर्शाः । फुल्लवन्धुकधुत कुसुमोच्छलगन्धोद्धराः पवनाः ।।५३।। सजल मेघों के जलकणों के सम्पर्क से शीतल स्पर्श वाले तथा फूले हुए बन्धूक वृक्षों से हिलाए गए फूलों से निकलते गन्ध से परिपूर्ण पवन चल रहे हैं। यहाँ पर 'ज' और 'ल' की अनेकश: आवृत्ति के कारण वर्णानुप्रास अलंकार है। अतिशय अलंकार का लक्षण जत्थ णिमित्ताहिन्तो लोआ-ए मन्त-गोअरं वअणं । विरइज्जइ सो तस्स अ अइसअ णामो अलंकारो ।।५४।। यत्र निमित्तेभ्यो लोकातिक्रान्तगोचरं वचनम् । विरच्यते स तस्य च अतिशयनामालंकारः ।।५४।। जहाँ किन्हीं निमित्तों से लोकसीमा का अतिक्रमण करने वाला कथन किया जाता है वहां अतिशय नामक अलंकार है। अन्य आलंकारिक इसे 'अतिशयोक्ति' नाम से अभिहित करते हैं । आचार्य दण्डी ने इसका लक्षण इस प्रकार किया है - विवक्षा या विशेषस्य लोकासीमातिवर्तिनी । असावतिशयोक्तिः स्यादलंकारोत्तमा यथा ।। काव्यादर्श २/२१४ अलंकारदप्पण का लक्षण आचार्य भामह के लक्षण से अधिक साम्य रखता है। उन का लक्षण है - निमित्ततो वचो यत्तु लोकातिक्रान्त गोचरम् । मन्यन्तेऽतिशयोक्तिं तामलंकारतया यथा ।। काव्यालंकार २/८१ अतिशयालंकार का उदाहरण देते हैं - अइसआलंकारो जहा (अतिशयालंकारो यथा) जइ गंध-मिलिअ-भमराण होइ अवअंस-चंपअ-पसूअं । ता केण विभाविज्जइ कउहल-मिलिअं पहं तिस्सा ।।५५।। यदि गन्यमिलितं भ्रमराणां भवत्यवतंसं चम्पकप्रसूनम् । तत्केन विभाव्यते कुतूहलमिलितं पन्थाः तस्य ।। ५५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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