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अलंकारदप्पण पद्मं बहुरजश्चन्द्रः क्षयी ताभ्यां तवाननम् । समानमपि सोत्सेकमिति निन्दोपमा स्मृता ।। काव्याद. २/३०।। ब्रह्मणोप्युद्धवः पद्मश्चन्द्रः शम्भुशिरोधृतः । तौ तुल्यौ त्वन्मुखेनेति सा प्रशंसोपमोच्यते ।।काव्याद. २/३१।।
अलंकारदप्पणकार के निन्दाप्रशंसोपमा को हम 'व्याजस्तुति' अलंकार में अन्तर्भूत नहीं कर सकते क्योंकि व्याजस्तुति में निन्दा वाच्य होने पर स्तुति व्यंग्य होती है अथवा इसका विपर्यय भी हो सकता है किन्तु यहाँ पर आपाततः निन्दाप्रतीति होती हुई भी पार्यान्तिक रूप से प्रशंसा ही वाच्य होती है ।
भरत के नाट्यशास्त्र में केवल चार काव्यालंकार माने गए हैं- उपमा, दीपक, रूपक, और यमक । इनमें से भरत ने उपमा के पाँच भेद माने हैं- प्रशंसा, निन्दा, कल्पिता, सदृशी और किञ्चित्सदृशी ।।
प्रशंसा चैव निन्दा च कल्पिता सदृशी तथा । किञ्चिच्च सदृशी ज्ञेया झुपमा पञ्चधा पुनः ।।ना.शा.१६/५० प्रशंसोपमा का उदाहरण इस प्रकार है -
दृष्ट्वा तु तां विशालाक्षी तुतोष मनुजाधिपः ।
मुनिभिः साधितां कृच्छ्रात् सिद्धिं मूर्तिमतीमिव ।। नाट्यशास्त्र में निन्दा उपमा का उदाहरण -
सा तं सर्वगुणैर्हीनं सस्वजे कर्कशच्छविम् । वने कण्ठगतं वल्ली दावदग्धमिव द्रुमम् ।। १६/५२ कल्पितोपमा का उदाहरण -
क्षरन्तो दानसलिलं लीलामन्थरगामिनः । मतङ्गजा विराजन्ते जङ्गमा इव पर्वताः ।। १६/५३
अलंकारदप्पणकार निन्दाप्रशंसोपमा के विवेचन में नाट्यशास्त्र के उपमाविवेचन से प्रभावित है। तल्लिच्छोवमा जहा (तल्लिप्सोपमा यथा)
पाउस-णिसासु सोहइ जलप्पहाणेहि पूरिआ पुहई । चल-विज्जु-वलय-वाडण-णिवडिअखणत्त-सरिसेहिं ।।३३।। प्रावड्निशासु शोभते जलपाषाणैः पूरिता पृथ्वी । चल विद्युद्वलयपाटननिपतित खणखणायितसदृशैः ।। ३४।। चंचल विद्युद्पी कंकण के टूटने से गिर कर खनखन शब्द करते हुए के समान
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१. “वा पुंसि पद्यं नलिनम्' इत्यमरकोषात् पद्मशब्दस्य पुंस्त्वम् ।
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