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________________ अलंकारदप्पण G जहाँ (एक उपमेय के लिये) विविध उपमानों की पंक्ति हो वहाँ मालोपमा होती है और जहाँ द्विविध सादृश्यमूलक उपमा होती है वहाँ द्विगुणरूपा उपमा कही जाती है । मालोवमा जहा (मालोपमा यथा) हरि - वच्छं व सुकमलं गअणं व भमन्त- सूर सच्छाअं । साअर-जलं व करि-मअर - सोहिअं तुह घर-द्दारं ।। २० ।। हरिवक्ष इव सुकमलं गगनमिव भ्रमत्सूरसच्छायम् । (भ्रमच्छूरसच्छायम्) सागरजलमिव करिमकरशोभितं तव गृहद्वारम् ।। २० ।। जिस प्रकार हरि (विष्णु) का वक्षःस्थल शोभन कमलसे युक्त है, आकाश जैसे (आकाश में) भ्रमण करते हुए सूर्य की कान्तिवाला है उसी प्रकार तुम्हारे घर का द्वार शोभनकमल पुष्पों वाला, घूमते हुए शूरों की कान्तिवाला है और जैसे सागर का जल हाथी और मकरों से सुशोभित है उसी प्रकार तुम्हारा द्वार हाथियों तथा मकर (निधि विशेष ) से शोभित है। यहाँ पर गृहद्वार उपमेय है। उसके लिये तीन उपमान है - हरिवक्ष, गगन और सागरजल । इस प्रकार यहाँ एक उपमेय के लिए तीन उपमानों की पंक्ति के कारण मालोपमा है । इसमें साधारण धर्म शब्दमूलक है, इस प्रकार ग्रन्थकार ने गुणसाम्य और क्रिया साम्य की तरह शब्द साम्य को भी उपमा का प्रयोजक माना है। विउणरूवोवमा जहा - ( द्विगुणरूपोपमा यथा ) णिव्वावारिकअ- भुअणमंडलो सूर णासिअ पहाओ । गाह ! पओसव्व तुमं पाउस - सरिसत्तणं वहसि ।। २१ ।। निर्व्यापारीकृतभुवनमण्डलः (निव्यापारीकृतभुवनमण्डलः) सूरनाशितप्रतापः । नाथ ! प्रदोष इव त्वं प्रावट्सदृशत्वं वहसि ।। २१ । । हे नाथ ! आप भूमण्डल को क्रियाशून्य करने वाली, सूर्य के ताप को नष्ट करने वाली रात्रि के तथा वर्षा ऋतु के समान आप पापी शत्रु से भूण्डल को विहीन करने वाले और शूर शत्रुओं के प्रताप को भी नष्ट करने वाले है । यहाँ भूमण्डल को व्यापाररूप गुण से रहित करने के कारण तथा सूर्य का प्रताप तथा शूरों का पराक्रम रूप गुण नष्ट करने के कारण द्विगुणरूपोपमा है। राजा के पक्ष में १. धनाधिपतियों तथा मन्दिरों के तोरणद्वार पर निधियों के चिह्न बनाने की प्रथा प्राचीनकाल में थी, इस प्रसंग में मेघदूत की अधोलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैंएभिः साधो हृदय निहितैर्लक्षणैर्लक्षयेथा । द्वारापान्ते लिखितवपुषौ शङ्खपद्मौ च द्रष्ट्वा ॥ मेघदूत २२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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