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अलंकारदप्पण
वस्तु किंचिदुपन्यस्य न्यसनं तत्सधर्मणः ।
साम्यप्रतीतिरस्तीति
आचार्य भामह का यह लक्षण है
प्रतिवस्तूपमा यथा ।। काव्याद. II / 46
समान वस्तुन्यासेन यथेवानभिधानेऽपि
आचार्य मम्मट ने प्रतिवस्तूपमा का यह लक्षण दिया है -
प्रतिवस्तूपमोच्यते ।
गुणसाम्यप्रतीतितः ।। काव्यालं. II / 34
"सामान्यस्य द्विरेकस्य यत्र वाक्यद्वये स्थितिः । " एक ही सामान्य धर्म का दो वाक्यों में भिन्नरूप से कथन करने पर प्रतिवस्तूपमा होती है । इस अलंकार में इवादि उपमावाचक शब्दों का प्रयोग नहीं होने से साम्य वाच्य न होकर प्रतीयमान होता है । पडिवत्थूवमा जहा (प्रतिवस्तूपमा यथा )
संपत्त-तिवग्ग सुहा थोवा पुहवी- अ होंति णरणाहा । महुर-फला (य) सकुसुमा सिणिद्ध - पत्ता तरू विरला ।। १५ ।। संप्राप्तत्रिवर्गसुखाः स्तोकाः पृथिव्यां भवन्ति नरनाथाः । मधुरफलाश्च सकुसुमाः स्निग्धपत्रास्तरवो विरलाः ।। १५ । ।
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इस पृथ्वी में त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम ) का सुख प्राप्त करने वाले राजा कम ही होते हैं । मधुर फलवाले, पुष्पों से युक्त तथा चिकने पत्तों वाले वृक्ष विरल होते हैं।
यहाँ पर दो वाक्यार्थ हैं और दोनों में परस्पर उपमा गम्य है। दोनों वाक्यार्थों में सामान्य धर्म एक ही है किन्तु भिन्न शब्दों में कहा गया है। प्रथम वाक्यार्थ का धर्म है "स्तोकाः” तथा द्वितीय वाक्यार्थ का धर्म है 'विरलाः'। दोनों समानार्थक होते हुए भी भिन्न शब्दों द्वारा कहे गए हैं।
गुणकलिता तथा असमा उपमा का लक्षण
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गुणकलिआ सा भण्णइ गुणेहिं दोहि पि सरिसआ जत्थ ।
उवमेओ किर जीओ उवमाणं होइ सा असमा ।।१६।। गुणकलिता सा भण्यते गुणैर्द्वयोरपि सदृशता यत्र । उपमेयः किल जयत्युपमानं भवति
सा असमा ।। १६ ।।
कलिता उपमा वह कही जाती है जहाँ गुणों के कारण दोनों में सादृश्य होता है, असमा उपमा वह है जहाँ उपमेय उपमान को जीत लेता है, अर्थात् उपमेय के सम्मुख कोई उपमान टिकता ही नहीं ।
यहाँ पर असमा उपमा का लक्षण आचार्य दण्डी के 'आसाधारणोपमा' से साम्य रखता है । दण्डी का असाधारणेपमा का लक्षण उदाहरण यह है -
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