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VIII
लाटानुप्रास कहा। अलंकारदर्पणकार ने भी अनुप्रास के दो ही भेद किये हैं- पदानुप्रास ओर वर्णानुप्रास ।
अलंकारदर्पणकार का अतिशयालंकार भामह का अतिशयोक्ति अलंकार है जिसे उसने समस्त अलंकारों का बीज कहा है। भामह के समान वहाँ भी अतिशयोक्ति को 'लोकातिक्रान्तगोचर' कहा गया है। दण्डी ने उसी को "लोकसीमातिक्रान्तरूप' माना है। परवर्ती आचार्यों में विद्याधर, विद्यानाथ एवं विश्वनाथ के लक्षण रुय्यक से प्रभावित हैं। दीक्षित ने अतिशयोक्ति के आठ भेद किये हैं।
विशेषालंकार विरोधमूलक अलंकार है । विशेष का अर्थ है- विलक्षण या असाधारण । इस अलंकार में आधार के बिना आधेय का वर्णन ही विलक्षणता का द्योतक है। आचार्य रुद्रट इस अलंकार के पुरस्कर्ता हैं। बाद में मम्मट, रुय्यक, शोभाकर, जयदेव, विद्यानाथ, विद्याधर, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित, जगन्नाथ और विश्वेश्वर ने इसका विवेचन किया है । मम्मट द्वारा किये गये विशेषालंकार के द्वितीय भेद से अलंकारदर्पणकार का लक्षण अधिक मिलता दिखाई देता है।
आक्षेप अलंकार को अलंकारदर्पणकार ने स्वतंन्त्र अलंकार माना है और उसके दो भेद किये हैं- भविष्यमाण और एकान्त । शोभाकर मित्र द्वारा वर्णित विध्याभास अलंकार आक्षेप से ही उद्भूत है। दण्डी का अर्थान्तराक्षेप भी आक्षेप के द्वितीय भेद से मिलता-जुलता है।
जाति अर्थालंकार है । मम्मट ने इसे स्वभावोक्ति नाम दिया है। यह गूढ़ार्थप्रतीतिमूलक अलंकार है । इसका प्रायः सभी आचार्यों ने वर्णन किया है। भामह और जगन्नाथ ने इसका वर्णन अवश्य नहीं किया है। इसके अनेक भेद-प्रभेद हुए हैं।
व्यतिरेक अलंकार सादृश्यमूलक अलंकार है । इसमें गुण विशेष के कारण उपमेय के उत्कर्ष या आधिक्य का वर्णन किया जाता है। तथा उपमान- उपमेय को अतुलनीय माना जाता है। भामह इसके उद्भभावक हैं। उन्हीं का अनुकरण अलंकारदर्पणकार ने किया है। दण्डी ने उसके चार भेद किये हैं। मम्मट ने २४, और दीक्षित ने तीन भेदों का उल्लेख किया है। व्यतिरेक में उपमान की भर्त्सना नहीं की जाती जबकि प्रतीप में भर्त्सना होती है।
अलंकारदर्पणकार का रसिक अलंकार भामह का रसवत् अलंकार होना चाहिए। इसका वर्णन भामह, दण्डी, उद्भट, रुय्यक, विश्वनाथ दीक्षित एवं पद्माकर ने किया है। आनन्दवर्धन ने इसे गुणीभूत व्यंग्य में अन्तर्भूत किया है।
अलंकारदर्पणकार का पर्याय अलंकार रुद्रट के पर्यायालंकार से भिन्न लगता है।
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