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________________ ७० जैन साहित्य और अपने को कामवासना की जागृति से बचाने पर जोर दिया गया है। (८) गणि विद्या में ८६ गाथाओं द्वारा दिवस, तिथि, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त आदि का ज्योतिष की रीति से विचार किया गया हैं जिसमें होरा शब्द भी आया है (8) देवेन्द्रस्तव में ३०७ गाथाएं हैं, जिनमें २४ तीर्थंकरों की स्तुति करके, स्तुतिकार एक प्रश्न के उत्तर में कल्पों और कल्पातीत देवों का वर्णन करता है । यह कृति भी वीरभद्र कृत मानी जाती है। (१०) मरण-समाधि में ६६३ गाथाएं हैं, जिनमें आराधना, आराधक, आलोचन, संलेखन, क्षमापन आदि १४ द्वारों से समाधि-मरण की विधि समझाई गई है, व नाना दृष्टान्तों द्वारा परीषह सहन करने की आवश्यकता बतलाई गई है । अन्त में बारह भावनाओं का भी निरूपण किया गया है । दसों प्रकीर्णकों के विषय पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि उनका उद्देश्य प्रधानतः मुनियों के अपने अन्त समय में मनको धार्मिक भावनाओं में लगाते हुए शांति और निराकुलता पूर्वक शरीर परित्याग करने की विधि को समझाना ही है। चूलिका सूत्र-२ अन्तिम दो चूलिका सूत्र नंदी और अनुयोगद्वार हैं, जो अपेक्षाकृत पीछे की रचनाएं हैं। नंदीसूत्र के कर्ता तो एक मतानुसार वल्लभी वचना के प्रधान देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ही हैं । नंदीसूत्र में ६० गाथाएं और ५६ सूत्र हैं। यहां भगवान महावीर तथा उनके संघवर्ति श्रमणों व परंपरागत भद्रमाहु, स्थूलभद्र, महागिरी आदि आचार्यों की स्तुति की गई है । तत्पश्चात् ज्ञान के पाँचभेदों का विवेचन कर, आचारांगादि बारह श्रुतांगों के स्वरूप को विस्तार से व्यक्त किया गया है । यहां भारत, रामायण, कौटिल्य, पांतजल आदि शास्त्रपुराणों तथा वेदों एवम् बहत्तर कलाओं का उल्लेख कर मुनियों के लिये उनका अध्ययन वयं कहा गया है। (२) अनुयोगद्वार आयंरक्षित कृत माना जाता है। उसमें प्रश्नोत्तर रूप से पल्योपमादि उपमा प्रमाण का स्वरूप समझाया गया है, और नयों का भी प्ररूपण किया गया है । इसके अतिरिक्त काव्यसम्बन्धी नवरसों, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना आदि लक्षणों एवम् चरक, गौतम आदि अन्य शास्त्रों के उल्लेख भी आये हैं । इस पर हरिभद्र द्वारा विवृत्ति भी लिखी गई है। अद्ध मागघी भाषा उपर्युक्त ४५ आगम ग्रन्थों की भाषा अद्धमागधी मानी जाती है । अर्द्ध -मागघी का अर्थ नाना प्रकार से किया जाता है-जो भाषा प्राधे मगध प्रदेश में . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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