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________________ ६८ मूलसूत्र- -४ चार मूल सूत्रों के नाम हैं- उत्तराध्ययन ( उत्तरज्झयण), आवश्यक ( आवस्य) दशवेकालिक (दसवेयालिय) और पिंडनियुक्ति (पिंड णिज्जुत्ति)। ये चारों सूत्र मुनियों के अध्ययन श्रौर चिन्तन के लिये विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने गये हैं, क्योंकि उनमें जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों, विचारों व भावनाओं और साधनाओं का प्रतिपादन किया गया है । आवश्यक सूत्र में साधुनों की छह नित्यक्रियाओं अर्थात सामायिक, चतुर्विंशति- स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सगं और प्रत्याख्यान का स्वरूप समझाया गया है । पिंडनियुक्ति में अपने नामानुसार fus श्रर्थात् मुनि के ग्रहण योग्य आहार का विवेचन किया गया है । इसमें आठ अधिकार हैं- उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण, जिनके द्वारा आहार में उत्पन्न होने वाले दोषों का विवेचन किया गया है, और उनके साधु द्वारा निवारण किये जाने पर जोर दिया गया है । निर्युक्ति आगमों पर सबसे प्राचीन टीकाओं से कहते हैं, और इनके कर्त्ता भद्रबाहु माने जाते हैं । पिंड नियुक्ति यथार्थतः दशवैकालिक के अंतर्गत पिंड एषणा नामक पांचवे अध्ययन की इसी प्रकार की प्राचीन टीका है, जिसे अपने विषय के महत्व व विस्तार के कारण आगम में एक स्वतंत्र स्थान प्राप्त हुआ है । शेष दो मूलसूत्र अर्थात् उत्तराध्ययन और दशवैकालिक विशेष महत्वपूर्ण, सुप्रचलित और लोकप्रिय रचनायें हैं, जो भाषा, साहित्य एवं सिद्धान्त, तीनों दृष्टियों से अपनी विशेषता रखती हैं । उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं । परम्परानुसार महावीर ने अपने जीवन के उत्तरकाल में निर्वाण से पूर्व ये उपदेश दिये थे । इन छत्तीस अध्ययनों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है एक सैद्धान्तिक, दूसरा नैतिक व सुभाषितात्मक, और तीसरा कथात्मक । इन तीनों प्रकार के विषयों का पश्चात्कालीन साहित्य में खूब अनुकरण व टीकाओं आदि द्वारा खूब पहलवन किया गया है दशकालिक सूत्र में बारह अध्ययन हैं, जिनमें विशेषतः मुनि आचार का प्ररूपण किया गया है । ये दोनों रचनाएं बहुलता से पद्यात्मक हैं, और सुभाषितों, न्यायों व रूपकों से भरपूर हैं। इनकी भाषा आचारांग और सूत्रकृतांग के सदृश अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन सिद्ध होती है । इन दोनों सूत्रों का उल्लेख दिग० शास्त्रों में भी पाया जाता है । जैन साहित्य प्रकीर्णक- - १० दसपइण्णा - नामक ग्रन्थों की रचना के सम्बन्ध में टीकाकारों ने कहा हैं कि तीर्थंकर द्वारा दिये गये उपदेश के आधार पर नाना श्रमणों द्वारा जो ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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