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महावीर से पूर्व का साहित्य
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाशु तं ॥(कठो. २, २, ६-७)
अर्थात् प्राणिमात्र में एक अनादि अनन्त सजीव तत्व है जो भौतिक न होने के कारण दिखाई नहीं देता । वही आत्मा है। मरने के पश्चात् यह आत्मा अपने कर्म व ज्ञान की अवस्थानुसार वृक्षों से लेकर संसार की नाना जीवयोनियों में भटकता फिरता है, जबतक कि अपने सर्वोत्कृष्ट चरित्र और ज्ञान द्वारा निर्वाण पद प्राप्त नहीं कर लेता । उपनिषत् में जो यह उपदेश गौतम को नाम लेकर सुनाया गया है, वह हमें जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उन उपदेशों का स्मरण कराये बिना नहीं रहता, जो उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को गौतम नाम से ही संबोधन करके सुनाये थे और जिन्हें उन्हीं गौतम ने बारह अंगों में निबद्ध किया, जो प्राचीनतम जैन साहित्य है और द्वादशांग आगम या जैन श्रुतांग के नाम से प्रचलित हुआ पाया जाता है ।
महावीर से पूर्व का साहित्य
प्रश्न हो सकता है कि क्या महावीर से पूर्व का भी कोई जैन साहित्य है ? इसका उत्तर हां और ना दोनों प्रकार से दिया जा सकता है । साहित्य के भीतर दो तत्वों का ग्रहण होता है, एक तो उसका शाब्दिक व रचनात्मक स्वरूप और दूसरा आर्थिक व विचारात्मक स्वरूप । इन्हीं दोनों बातों को जैन परम्परा में द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत कहा गया है। द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मकता की दृष्टि से महावीर से पूर्व कोई जैन साहित्य उपलभ्य नही है, किन्तु भावश्रुत की अपेक्षा जैन श्रुतांगों के भीतर कुछ ऐसी रचनाएँ मानी गई हैं जो महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित थीं, और इसी कारण उन्हें 'पूर्व' कहा गया है द्वादशांग आगम का बारहवां अंग दृष्टिवाद था । इस दृष्टिवाद के अन्तर्गत ऐसे चौदह पूर्वो का उल्लेख किया गया है जिनमें महावीर से पूर्व की अनेक विचार-धाराओं, मत-मतान्तरों तथा ज्ञान-विज्ञान का संकलन उनके शिष्य गौतम द्वारा किया गया था। इन चौदह पूर्वो के नाम इस प्रकार हैं, जिनसे उनके विषयों का भी कुछ अनुमान किया जा सकता है-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञान-प्रवाद, सत्य-प्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद कल्याणवाद (श्वेताम्बर परम्परानुसार अवन्ध्य), प्राणावाय,क्रियाविशाल और लोक-बिन्दुसार । प्रथम पूर्व उत्पाद में जीव, काल, पुद्गल आदि द्रव्यों
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